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________________ ७६ उपा. यशोविजयरचिते ___ अथ स्वतन्त्रसामान्यविशेषोभयाभ्युपगमे कणादवद् दुनयत्वम् , शबलतदभ्युपगमे च प्रमाणत्वमेव, यथास्थानं प्रत्येकं गौणमुख्यभावेन तदुपगमे च सङ्ग्रहव्यवहारान्यतरप्रवेश इति चेत् ?, न तृतीयपक्षाश्रयणे दोषाभावात् , उपधेयसाङ्कर्येऽप्युपाध्योरसार्यात् ॥ [ नैगम में दुर्नयत्व, प्रमाणत्व एवं संग्रहव्यवहारान्यतरप्रवेश की आपत्ति ] (अथ स्वतन्त्र....इति) यह शंका हो सकती है कि-'सामान्य-विशेष उभय को स्थीकार करने वाले अध्यवसायविशेष को नैगमनय का लक्षण माना जाय तो यहाँ सामान्य विशेष इन दोनों को स्वतन्त्ररूप से मानने में कणाद दर्शन में जैसे दुर्नयत्व है, उसी तरह नैगमनय में भी दर्नयत्व की आपत्ति आयेगी। कारण, कणाद दर्शन में स और विशेष को परस्पर भिन्न माना गया है तथा आश्रय रूप धर्मी से अत्यन्त भिन्न माना गया है । इसीलिए सामान्य और विशेष न तो धर्मीपरतन्त्र है और न परस्पर परतन्त्र है, किन्तु स्वतन्त्र हैं । इसी रीति से नैगम भी यदि धर्मी से भिन्न और परस्पर भिन्न सामान्य विशेष उभय का अभ्युपगम करे तो दुर्न यत्व का प्रसङ्ग नै गम में होगा, जो जैनसिद्धान्त में इष्ट नहीं है । इस आपत्ति का वारण करने के लिए यदि सामान्य विशेष को शबलरूप से माने तो, नैगम नय में नयत्व न रहकर प्रमाणत्व आ जायगा । कारण, धर्मी से कथञ्चित् अभिन्न सामान्य विशेषोभयस्वरूपवस्तुग्राहकज्ञान प्रमाण हो जाता है क्योंकि कथञ्चित् अभिन्न सामान्यविशेषोभयात्मकवस्तुज्ञानत्व ही प्रमाण का लक्षण है । वस्तु सामान्यात्मक और विशेषात्मक भी हो सकती है यदि सामान्य और विशेष में वस्तुरूप धर्मी के साथ कथञ्चिद अभेद माना जाय । ऐसा मानने पर वस्तु स्वरूप में सामान्य और विशेष इन दोनों का मिश्रण होता है क्योंकि वस्तुरूप धर्मी सामान्यात्मक भा है और विशेषात्मक भी है। अतः सामान्य विशेषोभय, वस्तु स्वरूप में मिश्रित होने से शबल पद से व्यवहृत होता है । इस तरह के सामान्यविशेषोभय को नैगमनय यदि माने तो, नैगमनय और प्रमाण में भेद का प्रयोजक कुछ नहीं पाया जाता है, अतः नैगमनय में प्रमाणत्व प्रसङ्ग खडा होता है । इस आपत्ति को दूर करने के लिए यदि कहा जाय कि 'नैगमनय सामान्यविशेषोभय का स्वीकार तो करता है, किन्तु कणाददर्शन के जसे स्वतन्त्ररूप से नहीं, तथा प्रमाण के जैसे शबल रूप से नहीं किन्तु गौणमुख्यरूप से स्वीकार करता है। जहाँ सामान्य को मुख्य रूप से मानता है वहाँ विशेष को गौणरूप से मानता है और जहाँ विशेष को मुख्य रूप से मानता है वहाँ सामान्य को गौणरूप से मानता है। कणाद दशन तो सामान्य विशेवोभय को कहीं भी गौणमुख्यभाव से नहीं मानता है, किन्तु स्वतन्त्ररूप से मानता है । इसलिए कणाद दर्शन के जैसे दुर्न यत्व का प्रसङ्ग यहाँ नहीं आता है और प्रमाण के जैसे शबलरूप से सिद्ध होना भी दूर हो जाता है। तो यह कहना भी दोष रहित नहीं है । यहाँ सामान्य का प्रधानरूप से और विशेष का गौण रूप से स्वीकार हो, ऐसे अध्यावसाय को संग्रह कहा जाता है, तो संग्रह जैसा ही नैगम का अभ्युपगम होने पर वैसे स्थल में नैगम
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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