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________________ ७२ उपा. यशोविजयरचिते करेगा तो गृहकोण, गृहमध्यप्रदेश आदि में भी देवदत्त के वास का अतिप्रसङ्ग संग्रह के मत में आवेगा, क्योंकि सस्तारक में देवदत्त का वास उपचाराश्रयण के विना सम्भवित नहीं है । इसलिए उपचार का आश्रयण कर के ही संस्तारक में वास मानना होगा, तब तो उपचार का आश्रयण कर के देवदत्त का वास गृहकोण आदि में भी सम्भवित हो सकता है । अत: गृहकोणादि में भी देवदत्त के पास का स्वीकार संग्रह को करना पडेगा। ("संस्तारकावच्छिन्न०) जिन आकाशप्रदेशों का इतर आकाशप्रदेशों से व्यावर्तक अर्थात् पृथक करने वाला संस्तारक है, वे आकाशप्रदेश संस्तारकावच्छिन्न आकाशप्रदेश माने जाते हैं । उनमें भी देवदत्त के वास का व्यवहार ऋजुसूत्र नहीं करता है क्योंकि उन आकाशप्रदेशों के साथ संस्तारक का ही संयोग है, देवदत्त का संयोग नहीं है। यहाँ पर यह ध्यान में रखना चाहिए कि संयोग को जैसे तार्किकलोग गुणरूप मानते हैं वैसा गुणरूप संयोग जैन सिद्धात में नहीं माना गया है किन्तु नैरन्तर्यरूप अथवा देशपरिणामरूप संयोग ही माना गया है । संस्तारकारूड आकाशप्रदेश के साथ संस्तारक का ही नरन्तर्य है । देवदत्त और संस्तारकावच्छिन्न आकाशप्रदेशों का नरन्तर्य नहीं है क्योंकि इन दोनों के माध्यम में संस्तारक ही व्यवधानरूप है । इसलिए संस्तारकावच्छिन्न आकाशप्रदेशो में देवदत्त के वास का कथन सङ्गत नहीं है। शंकाः- देवदत्त संस्तारक में बसता है, गृहकोण में वसता है, गृहमध्यभाग में वसता हैइत्यादि व्यवहार लोक में होते हैं, वे ऋजुसूत्र के मत से नहीं होंगे, क्योंकि ऋजुसूत्र संस्तारक-गृहकोणादि में देवदत्त के वास को नहीं मानता है, तब तो ऋजुसूत्र को लोक के साथ विरोध होगा ? समाधान:-ऋजुसूत्र के मत अनुसार 'देवदत्त संस्तारक में वसता है' इत्यादि व्यवहार जो लोक में होते हैं वे भ्रान्तिमूलक हैं। संस्तारक और गृहकोणादि में देवदत का वास न होने पर भी देवदत्त के वास की बुद्धि का होना ही भ्रान्ति है । जहाँ पर जिस वस्तु का अभाव हो, वहाँ उस वस्तु की बुद्धि को ही भ्रान्ति कही जाती है । यह भ्रान्ति का लक्षण, संस्तारकादि में देवदत्त का वास है' इत्याकारक बुद्धि में भी घटता है क्योंकि संस्तारक में देव दत्त के वास का अभाव है, तो भी देवदत्त वास की बुद्धि होती है । शङ्का:- भ्रान्ति का मूल दोष माना गया है। जिसके नेत्र में दोष होता है उसी को चन्द्र में द्वित्वभ्रम होता है । ऐसे तो चन्द्र एक ही है, यह शाहा और लोक में निश्चित है। यहाँ भी संस्तारक आदि में देवदत्त के वास की बुद्धिरूप भ्रान्ति में कुछ दोष होना आवश्यक है नहीं तो दोषरूप कारण के विना भ्रान्तिरूप कार्य ही नहीं हो सकेगा, वह दोष कौन है ? समाधान:-यहाँ प्रत्यासत्ति का अर्थ होता है सम्बन्ध, यहाँ सामीप्यघटित परंपरा सम्बन्धरूप है, जिन आकाशप्रदेशों में देवदत्त का वास है, उन प्रदेशों के समीपवर्ती आकाशप्रदेशों में सस्तारक है। इसलिए देवदत्तावच्छिन्न आकाशप्रदेश और सस्तारकावच्छिन्न आकाशप्रदेश, ये दोनों एक दूसरे के समीपवर्ती है । इसलिए देवदत्तावच्छिन्न आकाशप्रदेश का सस्तारकावच्छिन्न आकाशप्रदेश में सामोप्य सम्बन्ध है और
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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