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________________ नयरहस्ये वसतिदृष्टान्त: ऋजुसूत्रस्तु-येष्वाकाशप्रदेशेषु देवदत्तोऽवगाढस्तेष्वेव तद्वासमभ्युपैति । संस्तारके तद्वसत्युपगमे तु गृहकोणादावपि तदुपगमप्रसङ्गः । संस्तारकावच्छिन्नव्योमप्रदेशे तु संस्तारक एवावगाढो न तु देवदत्तोऽपीति न तत्रापि तद्वसतिभणितिः । संस्तारकगृहकोणादौ देवदत्तवसतिव्यवहारस्तु प्रत्यासत्तिदोषाद् भ्रान्तिमूलकः। विवक्षिताकाशप्रदेशेष्वपि च वर्तमानसमय एव देवदत्तवसति तीतानागतयोः, तयोरसत्वात् , प्रतिसमयं चलोपकरणतया तावदाका प्रदेशमात्रावगाहनाऽसम्भवाच्चेति दिक् । और व्यवहारनय के मत में जैसे-संस्तारकारूढभिन्न पुरुष में गृहाधेयत्वरूप यासार्थ उपचार से सङ्गत माना जाता है, उसी रीति से संग्रह नय में भी संस्तारकारूढभिन्न पुरुष में वासार्थ सङ्गत हो सकता है, तो संग्रहनय उसका स्वीकार क्यों नहीं करता है ? समाधानः-"सग्रहनय" उपचार को मानता ही नहीं है। इसलिए सस्तारकारूढ भिन्न पुरुष में वासार्थ नहीं सङ्गत हो सकता है । यहाँ शङ्का:- सङग्रह यदि उपचार का नहीं आश्रय करता है, तब "मूल में वृक्ष कपिसंयोगवान् है" ऐसा वाक्यप्रयोग जो होता है वह संग्रह के मत में कैसे होगा, क्योंकि समग्रवृक्ष में तो कपिसंयोग नहीं है। समाधानः-संग्रह के मत में 'मूलदेश से अभिन्न जो वृक्ष वह कपिसंयोगवान् है,' यही अर्थ ग्राह्य है । “मूले वृक्षः कपिसंयोगी" इस वाक्य में मूल पदो तर सप्तमी विभक्ति का अभेद अर्थ संग्रह मानता है । इसलिए पूर्वोक्त अर्थ ही इस के मत में माना जाता है । मूल पदोतर सप्तमी विभक्ति का अवच्छेदकत्व अर्थ मानकर “गुलावच्छिन्न वृक्ष कपिसंयोगवान् है' ऐसा वाक्यार्थ संग्रह को मान्य नहीं है, क्योंकि ऐसा वाक्यार्थ मानने में वृक्षपद का मूलावच्छिन्न वृक्षरूप वृक्षकदेश में उपचार करना पड़ता है। संग्रह तो उपचार का आश्रय नहीं करता है । अतः संग्रहनय के मत से 'मूलाभिन्न वृक्ष कपिसंयोगवाला है' यही अर्थ "मूले वृक्षः कपिसंयोगी" इस वाक्य से निकलता है। (वर्तमान काल में ही देवदत्त का वास स्वीकार्य) ("ऋजुसूत्रस्तु” इत्यादि)-ऋजुसूत्र जिन आकाशप्रदेशों में देवदत्त का संयोग रहता है, उन आकाशप्रदेशों में ही देवदत्त के वास को स्वीकार करता है। संस्तारक में भी देवदत्त का वास नहीं मानता है, कारण, संस्तारक मे देवदत्त का वास मानने पर उपचार का आश्रय लेना पडता है, क्योंकि समग्र संस्तारक के साथ देवदत्त संयोग नहीं रहता है। किन्तु संस्तारक के एक देश के साथ ही देवदत्त का संयोग रहता है। जिन आकाशप्रदेशों में देवदत्त का संयोग रहता है, उन आकाशप्रदेशों में देवदत्त का वास मानने में उपचार का आश्रय लेना आवश्यक नहीं है। इसलिए "ऋजसूत्र" की मान्यता "सङग्रह" की मान्यता की अपेक्षा से सूक्ष्म प्रतीत होती है। "ऋजसूत्र” का यह भी कहना है कि सङग्रह यदि सस्तारक में देवदत्त के वास का स्वीकार उअकरोत्यनेनेत्युपकरणम्-स्वभावः, चलं अस्थिरमुपकरण' यस्य स चलोपकरणः, तस्य भावः चलोपकरणता तया चलोपकरणतयेत्यर्थः, आत्मप्रदेशानां कम्पनशीलस्वादिति तात्पर्यम् ।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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