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________________ नयरहस्ये वसतिदृष्टान्तः [ वसति के दृष्टान्त में व्यवहारनय का अभिप्राय ] (व्यवहारेऽप्ययमेवे"-त्यादि-) "वसति" दृष्टान्त से गुरु गुरुतर विषयवाले नैगम भेदों में जैसे उपचार के कारण अविशुद्धि का तथा अल्प अल्पतर विषय वाले नगम भेदों में अपेक्षिक विशुद्धि का विचार किया गया है, उसी रीति से गुरु गुरुतर विषय "व्यवहारनय' के भेदों में भी उपचार होने के कारण आपेक्षिक अविशद्धि का विमर्श करना चाहिए तथा अल्प अल्पतर विषय वाले “व्यवहारनय के भेदों में पूर्वपूर्व की अपेक्षा से उत्तरोत्तर भेदों में विशुद्धि का विमर्श करना चाहिए. अर्थात् विशुद्धि का अपकर्ष और उत्कर्ष समज्ञने के लिए तथा अविशुद्धि का अपकर्ष और उत्कर्ष समझने के लिए एक ही मार्ग का आश्रय नैगम नय के भेदों में और व्यवहार नय के भेदों में करना चाहिए। [ व्यवहारनय में 'वसन वसति' इस भेद पर आपत्ति की शंका ] ("नन्वति"-) यदि यहाँ शंका उठे कि-"अतिशुद्धनैगम नय” का वर्तमान कालीन "वसति' के अभिप्राय से “वसन वसति" यह भेद माना गया है । यह भेद व्यवहार नय में नहीं हो सकता है । कारण, लोक में जैसा व्यवहार होता है, वैसा ही व्यवहारनय मानता है । लोक में तो यदि वर्तमान काल में अन्य स्थान में कोई वसता हो, तो भी पूर्व कालीन वास को लेकर पूर्वकालीन वास का आश्रय जो स्थान, तद्वासित्वेन व्यवहार देखने में आता है । जैसे-पाटलिपुत्र में वास करने वाला देवदत्त पाटलिपुत्र से अन्यत्र कुछ प्रयोजन वश प्रयागादि में गया हो, तो भी प्रयागादि के लोक उसको यह पाटलिपुत्र वासी है ऐसा ही व्यवहार करते हैं उस समय देवदत्त में पाटलिपुत्रवास वर्तमान नहीं है । तब “व्यवहार नय" में भी अविशुद्धि और विशुद्धि का ज्ञान करने के लिए नंगमनय से स्वीकृत मार्ग का आश्रयण करना चाहिये'--यह कथन अभंगत प्रतीत होता है।"-- [ अन्यत्र गत व्यक्ति में पाटलिपुत्रवासित्व व्यवहार औपचारिक-उत्तर ] ("सत्यम्"-) तो इस शंका का समाधान यह है कि पाटलिपुत्र में वास न करता हो उस काल में भी 'यह पाटलिपुत्रवासी है' ऐसा व्यवहार जो होता है उसका हम भी स्वीकार करते हैं सर्वथा निषेध नहीं करते हैं, किन्तु प्रयागस्थित देवदत्त में पाटलिपुत्रवामित्व का व्यवहार जो लोक में होता है वह मख्य व्यवहार नहीं है किन्त वह व्यव हार उपचार से होता है । देवदत्त में चिरकाल से संबद्ध जो पाटलिपुत्रगत गृहस्वामित्व और पाटलिपुत्रगत कुटुम्बस्वामित्व है उसका प्रयागवासीत्व में आरोप कर के पाटलिपुत्रवासी पद का प्रयोग किया जाता है । यहाँ "आदि" पद से पाटलिपुत्ररूढव्यवहारत्व, पाटलिपुत्रगत ख्यातिमत्त्व इत्यादि का सूचन किया गया है क्योंकि चिरकाल तक पाटलिपुत्र में बसने से लोग वही व्यवहार करते हैं कि 'यह पाटलिपुत्र का वासी है'। तथा पाटलिपुत्र में अधिक काल बसने से वहाँ उसकी प्रसिद्धि हो गई हो तो प्रयाग में बसते समय में भी लोक चैत्रादि में 'यह पाटलिपुत्र का वासी है' यह व्यवहार करते हैं । ये सभी व्यवहार उपचार से ही होते हैं इसलिए गौण ही हैं, मुख्य तो नहीं हैं ।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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