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________________ उपा. यशोविजय रचिते व्यवहारेऽप्ययमेवानुसरणीयः पन्थाः । नन्वत्र कथं 'वसन् वसती 'ति भेदः, पाटलिपुत्रादन्यत्र गतस्यापि पाटलिपुत्रवासित्वेनैव व्यवहारादिति चेत् ? सत्यम्, तत्र बहुकाल प्रतिबद्धतद्गतगृह कुटुम्बस्वामित्वाद्यर्थे वा सित्वपदोपचारेण तथा प्रयोगात् । प्रयोग को सुनने पर यह आकांक्षा होती है कि लोक तो ऊर्ध्वादि अनेक हैं, उनमें से किस लोक में बसता है ? इस आकांक्षा की निवृत्ति के लिए यदि कहा जाय कि 'तिर्यग्लोके वसति' तो इस प्रयोग को सुनने पर भी श्रोता को यह आकांक्षा अवश्य होती है कि तिर्यग्लोक में तो असंख्य द्वीप हैं, उनमें से किस द्वीप में बसता है ? इस आकांक्षा की निवृत्ति के लिए यदि कह दे कि 'जम्बूद्वीपे वसति' तो भी निराकांक्ष बोध नहीं होता है क्योंकि जम्बूद्रीप में बहुत से क्षेत्र हैं, उनमें से किस क्षेत्र में वसता है ! ऐसी आकांक्षा श्रोता को हो ही जाती है। इसकी निवृत्ति के लिए यदि यह कहा जाय कि 'भरतक्षेत्रे वसति' तो इस वाक्य के सुनने पर भी यह आकांक्षा अवश्य होती है कि भरत क्षेत्र के तो दो भाग हैं- उत्तरार्द्ध और दक्षिणाद्ध, उनमें से किस भाग में बसता है ? इस आकांक्षा की निवृत्ति के लिए कहें 'भरतदक्षिणा वसति' तथापि भरत क्षेत्र के दक्षिणा में बहुत से नगर हैं, उनमें से किस नगर में वसता है ? यह आकांक्षा उत्पन्न होती है । इस आकांक्षा की निवृत्ति के लिए 'पाटलिपुत्रन गरे वसति' ऐसा प्रयोग करे तो भी पाटलिपुत्र नगर में तो बहुत से घर हैं, उनमें से किस घर में वसता है ? इस आकांक्षा को दूर करने के लिए यदि कहे कि 'देवदत्तगृहे वसति' तथापि यह आकांक्षा अवश्य जागृत होती है कि देवदत्त के घर में तो अनेक विभाग हैं, उनमें से कौन से विभाग में वसता है ? इसकी निवृत्ति के लिए यदि कहा जाय 'मध्यगृहे वसति' तब कोई आकांक्षा नहीं होती है और निराकांक्ष बोध होता है। यहां "तिर्यग्लोके वसति" इस प्रयोग के बाद जब तक निराकांक्ष बोध नहीं होता है तब तक भिन्न-भिन्न आकांक्षाएँ होती रहती हैं। "तिर्यग्लोके वसति" इस प्रयोग के बाद जो आकांक्षाएँ होती हैं, वे 'लोके वसति' इस प्रयोग के बाद होने वाली आकांक्षाओं से अल्प हैं । इसलिए "लोके वसति" इस प्रयोग में आकांक्षाओं की अधिकता है । अतः इस प्रयोग में सब से अधिक अविशुद्धि है । तदपेक्षया “तिर्यग्लोके वसति" इस प्रयोग में अल्प अविशुद्धि है क्योंकि यहाँ आकांक्षा की मात्रा कुछ अल्प है । इसी तरह "जम्बूद्वीपे वसति" इस प्रयोग में “तिर्यग्लोके वसति" इस प्रयोग की अपेक्षा आकांक्षा अल्प है, इसलिए अविशुद्धि अल्प है । इसी रीति से अन्य प्रयोगों में भी जिसकी अपेक्षा से जिस में आकांक्षा का आधिक्य जान पडे उसकी अपेक्षा से उसमें अधिक अविशुद्धि जाननी चाहिए, तथा जिस प्रयोग में जिस प्रयोग की अपेक्षा से आकांक्षा की अल्पता प्रतीत हो उस प्रयोग की अपेक्षा से अल्पाकांक्षावाले प्रयोग में विशुद्धि भी समझनी चाहिए । आकांक्षा की अधिकता और न्यूनता से ही अविशुद्धि और विशुद्धि के तारतम्य का निश्चय होता है । इसी से ही 'वसन् वसति' यह प्रयोग सबसे विशुद्ध नैगमका भेद माना जाता है, क्योंकि "वसन् वसति" इस प्रयोग के बाद कोई भी प्रकार की आकांक्षा नहीं उठती है । इसलिए " वसन् वसति" इस प्रयोग से श्रोता को निराकांक्ष बोध होता है, इस रीति से भी विशुद्धि और अविशुद्धि में वैचित्र्य का उपपादन हो सकता है । ६८
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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