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________________ नयरहस्ये वसतिदृष्टान्त: वसतिराधारता सा च यथोत्तरशुद्धानां नैगमभेदानां लोके, तिर्यग्लोके, जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे, तद्दक्षिणाधे, पाटलिपुत्रे, देवदत्तगृहे, तन्मध्यगृहे चावसेया ॥ अतिशुद्धनैगमस्तु 'वसन् वसतीत्याह || इसलिए बाह्यप्रस्थक में प्रस्थकोपयोग का तादात्म्य ही रहेगा, अर्थात् अभेद ही रहेगा । इस स्थिति में बाह्यप्रस्थक ज्ञानात्मक ही होगा, अज्ञानात्मक तो नहीं होगा । तब उभयरूप का समावेश कैसे होगा ? " - इस शका का समाधान यह है कि जिस नय की दृष्टि से विषयता तादात्म्यरूप है उस नय की दृष्टि से भी कथञ्चित्तादात्म्यरूप ही विषयता होगी चूँकि एकान्त तादात्म्यरूप विषयता मानने में अपसिद्धान्त का प्रसंग होगा और कथञ्चित्तादात्म्य का होना, कथञ्चित् भेद के समावेश का विरोधी नहीं है । इसलिए ज्ञानात्मकता और अज्ञानात्मकता उभयरूप, बाह्यप्रस्थक में उस नय की दृष्टि से सिद्ध है । इसलिए प्रस्थक में उभयरूपता है, ऐसा नयान्तर का भी अभिप्राय माना जाय तो उभयरूप समावेश होने में कोई बाधा नहीं है । [ अर्थ - अभिधान - ज्ञान की तुल्यार्थता ] ( " यदाश्रयणे” इति ) विषयता को कथञ्चित् तादात्म्यरूप मान करके ही 'अर्थाभिधानप्रत्ययानां तुल्यार्थत्वम्' ऐसा शास्त्रकारों ने कहा है । यहाँ अर्थशब्द से बाह्य घटपटादि रूप अर्थ विवक्षित हैं, जो शब्दजन्य ज्ञान का विषय होता है । अभिधान पद से अर्थवाचक शब्द विषक्षित है । शब्दजन्यज्ञान का विषय जैसे अर्थ होता है, वैसे शब्द स्वयं भी स्वजन्यज्ञान का विषय होता है । 'शब्दोऽपि शाब्दबोधे भासते' इस तरह की मान्यता शास्त्रकारों की है। इस से सिद्ध होता है कि शब्द भी शाब्दबोध का विषय बनता है । प्रत्यय शब्द से शब्दजन्यबोध विवक्षित है । " तुल्यार्थ” शब्द से 'तुल्यश्चासौ अर्थ:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ' एक अर्थ ' विवक्षित है । जिस नय के मत से विषयता तादात्म्यरूप है उस नय के अनुसार शब्दजन्यज्ञान और उस का विषय जो वटपटादि रूप बाह्यार्थ और तवाचक 'घटपटादि शब्द' ये तीनों अभिन्न हैं । कारण, ज्ञान में ज्ञानतादात्म्य स्वतः सिद्ध | ज्ञानविषय अर्थ और शब्द इन दोनों में भी ज्ञानविषयता होने से ज्ञानतादात्म्य हो जाता है । इन तीनों में तादात्म्य होने से अभिन्नता आ जाती है, इस आशय से अर्थ शब्द और शब्दजन्यबोध इन तीनों में तुल्यार्थत्व का प्रतिपादन किया गया है । यहाँ 'तुल्यार्थत्व अभिन्नार्थत्वरूप विवक्षित है' यह ध्यान रखना चाहिए । [प्रस्थक दृष्टान्त समाप्त ] [ वसति के दृष्टान्त से नैगमभेदों का अभिप्राय ] ("वसतिराधारता" इत्यादि) प्रदेश, प्रस्थक और वसति इन तीनों दृष्टान्तों से क्रमशः नैगमादि नयों में अपेक्षाकृत उत्तरोत्तर विशुद्धि होती है ऐसा पूर्व में कहा गया है । उन में प्रदेश और प्रस्थक दृष्टान्त द्वारा जिस तरह अपेक्षाकृतशुद्धि नयों में होती है, वह रीति बता दी गयी है । अब वसति दृष्टान्त से नैगमादि नय में यथेोत्तर अपेक्षाकृत शुद्धि जिस प्रक्रिया से ज्ञात होती है, उस प्रक्रिया का अग्रिम ग्रन्थ से वर्णन किया गया है ।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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