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________________ उपा. यशोविजय रचित सङ्ग्रहस्तु विशुद्धत्वात् कारणे कार्योपचार कार्याsकरणकाले च प्रस्थकं नाङ्गीकुरुते । न च तदा घटाद्यात्मकत्वप्रसङ्गः, तदर्थक्रियां विना तत्त्वायोगात् । ५४ "" इन पूर्वोक्त “प्रस्थक" पर्यायों के अनन्तर जब अन्य साधन (बाट) द्वारा धान्य का मान विशेष करके “लेखन" क्रिया के बाद बने हुए “प्रस्थक" पर्याय में उस धान्य को रखा जाय, और न्यून अधिक न हो, तब वह प्रस्थकपर्याय " प्रस्थक शब्द से कहा जाता है, वही वास्तविक "प्रस्थक" है क्योंकि लोक उसी में प्रस्थक शब्द का प्रयोग करते हैं यह प्रसिद्ध है । इसलिए उस अर्थ में "प्रस्थक" यह नाम वारंवार प्रयुक्त होता है । किसी नाम का बार बार प्रयोग होना उसी को आकुट्टन (पुनः पुनः आवर्त्तन) कहते हैं और उस नाम को आकुट्टितनाम कहते हैं । ऐसे सर्वसाधारण लोक प्रसिद्ध "प्रस्थक" में जो "प्रस्थक" शब्द का व्यपदेश होता है यह वास्तविक व्यपदेश है। इसमें उपचार का मिश्रण नहीं है । अतिशुद्ध नैगमनय इसी को "प्रस्थक" रूप से मानता है । इस भेद में कोई अशुद्धि का सम्पर्क नहीं रहता है । वनगमनादि क्रिया का उद्देश्य काष्ठस्वरूप इत्यादि प्रस्थकपर्यायों में तो तरतम भाव से अशुद्धि का सम्बन्ध रहता है, इसलिए वनगमनादि क्रिया के उद्देश्य काष्ठ पर्यायों में प्रस्थक का व्यपदेश अतिशुद्ध नंगम से नहीं होता है । [ प्रस्थक के दृष्टान्त से व्यवहारनय का निरूपण ] 66 "" वनगमन “व्यवहारे०" इति=" व्यवहारनय" में भी "प्रस्थक" दृष्टान्त से पूर्वपूर्वनय की अपेक्षा से उत्तरोत्तर नय में शुद्धि का विवेचन उक्त्तरीति से ही करना चाहिए । क्रिया उद्देश्यकाष्ठ में " प्रस्थक" का जो व्यवहार होता है उस की अपेक्षा से विशुद्धि छेदनक्रियान्वितकाष्ठ में जो “प्रस्थक" व्यवहार होता है उस में है । एवं छिद्यमानकाष्ठ में "प्रस्थक" व्यवहार की अपेक्षा से तक्षणक्रियायुक्तकाष्ठ में जो “प्रस्थक" व्यवहार होता है उस में विशुद्धि अधिक है। तथा तक्षणक्रियायुक्तकाष्ठगत “प्रस्थक" व्यवहार की अपेक्षा से उत्किरणक्रियाकालीनकाष्ठ में “प्रस्थक" व्यवहार में अधिक विशुद्धि रहती है । तदपेक्षया लेखन क्रियाकालीनकाष्ठ में प्रस्थकव्यवहार विशुद्ध है, उस की अपेक्षा से भी लोक प्रसिद्ध " प्रस्थक" पर्याय में “प्रस्थक" व्यवहार विशुद्ध है । अतिशुद्ध व्यवहारनय " जनसाधारण प्रसिद्ध प्रस्थक" को ही वास्तविक प्रस्थक मानता है क्योंकि उस में उपचार का मिश्रण नहीं है । वनगमनादिक्रिया उद्देश्यादि पर्यायों में जो प्रस्थक व्यवहार होता है उस में उपचार रहता है इसलिए अशुद्धियुक्त है । अत एव " अतिशुद्ध व्यवहारनय" का विषय वनगमनादि क्रियाविशिष्टकाष्ठरूप "प्रस्थक" पर्याय नहीं हैं । [ प्रस्थक के दृष्टान्त से संग्रहनय का निरूपण ] " संग्रहस्तु० " इति - नैगम और व्यवहार की मान्यता से "प्रस्थक" दृष्टान्त में "संग्रहनय" की मान्यता भिन्न ही है। नैगम और व्यवहारनय वनगमन - दारुछेदनादिक्रियाधार काष्ठ जो प्रस्थक के प्रति परम्परा कारण है उस में 'प्रस्थक रूप कार्य का उपचार करके प्रस्थक व्यपदेश को स्वीकारते हैं । परन्तु " संग्रहनय" कारण में कार्य का उपचार नहीं
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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