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________________ ३६ उपा. यशोविजय रचित न चैवमितरांशप्रतिक्षेपित्वाद् दुर्नयत्वम् , तत्प्रतिक्षेपस्य प्राधान्यमात्र एवोपयोगात् एतद्विषयविस्तास्तु नात्राभिधीयते ग्रन्थान्तरप्रसङ्गात् । इत्यादि प्रतीति में भासती है। तब तो क्षणिक आत्मपर्यायों में जिस को बंध होगा वह पर्याय शीघ्रविनाशी होने के कारण कालान्तरभावि मोक्षसमय तक रहेगा ही नहीं; जो मोक्षसमयभावि आत्मपर्याय होगा उस में मोक्षानुकल साधन का अभाव ही रहेगा। क्योंकि सिद्धान्त यह है कि प्रायः अनेक जन्मार्जित साधनों से मोक्षगति प्राप्त होती है। यह नय किसी भी आत्मक्षण को अनेक जन्मव्यापिकाल तक स्थिर तो मानता ही नहीं है। तब यह बद्ध है-यह मुक्त है' यह व्यवस्था कैसे बनेगी?' -इस आशंका का समाधान सूचित करने के लिए "प्रत्यभिज्ञाद्यपपत्तेः” इस पंक्ति में “आदि" पद का प्रयोग किया है।" "आदि" पद से यह सूचित होता है कि जैसे-सजातीय क्षणपरम्परा को विषय कर के “स एवायं घटः” इत्यादि प्रत्यभिज्ञा बनती है, उसी तरह आत्मक्षण परम्परारूप द्रव्य में बंध और मोक्ष दोनों का स्वीकार करेंगे । इसलिए जिस क्षण परम्परा में बंध कोई काल में रहेगा, उसी आत्मक्षण परम्परा में किसी काल में मोक्ष भी हो सकेगा। अतिरिक्त स्थिर द्रव्य का स्वीकार न करने पर भा बंध-मोक्ष व्यवस्था को यह नय उक्तरीति से ही सिद्ध करता है। [ 'मात्र' पद के प्रयोग से दुर्नयत्व की आपत्ति-शंका ] "न चैवमि"त्यादि-यहाँ पर यह आशंका उठती है कि-"द्रव्यमात्र का ग्राही नय द्रव्यार्थिक नय है, ऐसा द्रव्यार्थिक नय का लक्षण आपने बताया है। उस लक्षण ''मात्र' पद का प्रवेश है, इस से "द्रव्येतराऽग्राहित्वे सति द्रव्यग्राहित्वं द्रव्याथिक नयत्वम्" ऐसा लक्षण सिद्ध होता है उसका अर्थ यह हुआ कि जो द्रव्य से इतर पर्याय का ग्रहण न करावे वह “द्रव्यार्थि कनय" है। यहाँ “द्रव्येतराऽग्राहित्व" इतना अंश 'मात्र' पद से ही निकला है । यह नय द्रव्य से इतर जो पर्याय उत्पाद-विनाशरूप है, उसको तात्त्विक मानता नहीं है। तब तो द्रव्येतर अंश का प्रतिक्षेप इस नय से होता है इसलिए यह दुर्नय हो जायेगा क्योंकि नय का लक्षण इस में घटेगा नहीं, क्योंकि नय के लक्षण में तदितरांशाऽप्रतिक्षेपित्व विशेषण दिया गया है। यह तो "घटो अनित्य एव" इत्यादि तार्किकों का जो अभ्युपगम है वैसा ही सिद्ध होता है । 'घट अनित्य ही है' ऐसा मानकर तार्किक लोग घट में अनित्यत्व से इतर नित्यत्व का प्रतिक्षेप करते हैं इसलिए तार्किकों का अभ्युपगम जैसे दुर्नय है, वैसे यह भी दुर्नय बन जायगा, यह आपत्ति 'मात्र' पद के प्रवेश से होती है। ऐसे ही 'पर्यायमात्रग्राही पर्यायार्थिकः' इस लक्षण में भी 'मात्र' पद का प्रवेश होने से 'पर्यायेतराऽग्राहित्वे सति पर्यायग्राहित्वम्'ऐसा लक्षण पर्यायार्थिक नय का सिद्ध होता है । इस लक्षण में भी पर्यायेतराऽग्राहित्व इतना अंश 'मात्र' पद से प्राप्त होता है. उस लक्षण का यह अर्थ निकलता है कि पर्याय से इतर जो द्रव्यांश उसका जो अग्राही अर्थात् प्रतिक्षेपक हो और पर्यायांश का बोधक हो वह नय पर्यायाथिक नय है। यह नय-सजातीय क्षण परम्परा से अतिरिक्त स्थिर द्रव्य को नहीं मानता है इसलिए ध्रौव्यांश का प्रतिक्षेप इस नय से होता है, इस हेतु से इस नय में भी नय का लक्षण नहीं जाता है । अतः इसमें भी दुर्नयत्व की आपत्ति आती है।"
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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