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________________ नयरहस्ये पर्यायार्थिकनयः "पर्यायमात्रग्राही पर्यायार्थिकः" अयं ह्युत्पाद-विनाशपर्यायमात्राभ्युपगमप्रवणः, द्रव्यं तु सजातीयक्षणपरम्परातिरिक्त न मन्यते, तत एव प्रत्यभिज्ञाद्युत्पत्तेः । नय द्रव्यमात्र को ग्रहण करता है । यह नय द्रव्य को ही तात्त्विक मानता है, उत्पादव्यय-ध्रौव्यस्वरूप वस्तुमात्र स्याद्वादसिद्धान्त में स्वीकृत है। इन में उत्पाद और विनाश ये दो पर्यायरूप हैं, इन दोनों को द्रव्यार्थिक नय वास्तविक नहीं मानता है और ध्रौव्य को वास्तविक मानता है । ध्रौव्य का ही स्थैर्य अथवा द्रव्य पद से व्यवहार किया जाता है। यह नय द्रव्य को ही केवल वास्तविक रूप से स्वीकार करता है इसीलिए "मात्र" पद का प्रयोग लक्षण में ग्रन्थकार ने किया है। मात्र पद से उत्पाद-विनाश रूप पर्यायों का व्यवच्छेद होता है । इस नय की दृष्टि से घटादि पर्याय मृत द्रव्य में रहते ही हैं । कुम्भकारादि व्यापार से उस का आविर्भाव होता है उसी को इस नय के मत से उत्पाद कहा जाता है । 'अपूर्वभवन रूप उत्पाद को यह नय नहीं मानता है। इसी तरह मुद्गरनिपात आदि विनाशक व्यापार से घटादि पर्यायों का मृदात्मक द्रव्य में जो तिरोभाव हो जाता है, उसी को यह नय विनाश मानता है। अत: इस नय के मत से उत्पादविनाश जो घट शरावादि पर्यायों के होते हैं, वे वास्तविक नहीं हैं किन्तु मृदादि द्रव्य ही वास्तविक है । यह द्रव्यार्थिक नय का अभिप्राय है। [ पर्यायाथिक नय के अभिप्राय का स्पष्टीकरण ] “पर्यायमात्र” इत्यादि "नय” के मूल दो भेदों में से दूसरा भेद “पर्यायार्थिक नय" है । जो नय पर्यायमात्र का ग्रहण करावे, उस को पर्यायार्थिक नय कहते हैं। अनेकान्तात्मक वस्तु में एक अंश पर्याय भी है, केवल पर्याय को यह नय स्वीकार करता है, पर्याय पद से उत्पाद, विनाश इन दोनों का ग्रहण होता है। पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से पर्याय ही वास्तविक है, वस्तुगत ध्रौव्यांश का स्वीकार यह नय नहीं करता । सजातीय अन्य अन्य पर्याय प्रतिक्षण होते रहते हैं, यह इसका मन्तव्य है। जैसे- घट प्रतिक्षण नया नया उत्पन्न होता रहता है, और प्रतिक्षण उसका विनाश भी होता रहता है, वह घटक्षणपरम्परा सजातीय है, उस में अत्यन्त सादृश्य है, इसलिए प्रतिक्षणभावि इन घटों में परस्पर भेद होने पर भी प्रतीत नहीं होता है। अतः वह क्षणपरम्परा ध्रुव जैसी प्रतीत होती है वही ध्रौव्यांश है अथवा द्रव्य है और वह वास्तविक नहीं है, क्योंकि क्षणपरम्परा से अतिरिक्त पर्यायों में अनुगत एक द्रव्य को यह नय नहीं मानता है । यहाँ यह आशंका हो सकती है कि-"स एवायं घटः-यह वही घट है"-यह प्रत्य भिज्ञा जो स्थिर द्रव्य को सिद्ध करती है वह पर्यायार्थिक नय के मत से कैसे बनेगी ? इसका समाधान “तत एव" इस पद से ग्रन्थकार देते हैं। इस समाधान का आशय यह है कि सजातीय क्षगपरम्परा ही इस प्रत्यभिज्ञा का विषय है, अतिरिक्त द्रव्य नहीं, घटक्षणपरम्परामात्र से “स एवार्थ घटः" यह प्रत्यभिज्ञा उत्पन्न होती है। 'बन्ध-मोक्ष व्यवस्था कैसे होगी? यदि स्थिरद्रव्य न माना जाय-यह एक आशंका पर्यायार्थिक नय के मत में खड़ी होती है, कारण इस के मत में आत्मा भी स्थिर द्रव्य नहीं है किन्तु आत्मक्षण परम्परा ही भेदप्रतीति न होने के कारण स्थिररूप से “स एवायं चैत्रः"
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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