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________________ उपा. यशोविजय रचित कथं तत्रैव कदाचिद् “गुरुः" इत्येकवचनं, कदाचिच्च "गुखः" इति बहुवचनम् ? उच्यते-द्रव्यपर्याययोर्यथाक्रममुद्भूतानुद्भूतत्वविवक्षणात् शाब्दन्यायानुसरणात् । सुवर्णद्रव्य और उसके पर्यायों में कार्यभेद भी प्रत्यक्ष ही है, इन चारों उपाधियों से द्रव्य और उनके पर्यायों का भेद माना जाता है । वह भेद स्वाभाविक नहीं है, किन्तु औपाधिक या काल्पनिक है ।" ३० परन्तु यह मन्तव्य युक्त नहीं है। कारण, द्रव्य और पर्याय इन दोनों का वास्तविक भेद यदि नहीं माना जाय तो द्वित्वादि संख्या, जो पर्यायों में रहती हैं और पर्यायों की जो घटकटकादि संज्ञा तथा कम्बुग्रीवादिमत्त्वादि पर्यायों का लक्षण और जलाहरणादि पर्यायों का कार्य ये सभी निराश्रय बन जाएँगे । क्योंकि इन का आश्रय उक्त पर्याय ही हो सकते हैं । वे पर्याय द्रव्य से वस्तुतः भिन्न न होने पर तो द्रव्यस्वरूप में ही इन का निवेश हो जाता है, द्रव्य से पृथक इन की स्थिति है नहीं, तब इन में रहनेवाले संख्या, संज्ञा आदि भेदों का आलंबन कौन बनेगा ? इसलिए द्रव्य और पर्यायों का भेद और अभेद ये दोनों स्वाभाविक है । यही मानने योग्य है, यही स्याद्वाद का सिद्धान्त है | I [ एकवचन बहुवचन के प्रयोगभेद की उपपत्ति ] " कथं तक" इत्यादि यहाँ यह आशंका उठती है कि यदि भेद और अभेद दोनों को एक वस्तु में वास्तविक रूप से स्याद्वादी स्वीकार करते हैं, तो एक व्यक्तिविशेष 'गुरु' में भेद भी वास्तविक ही है, इसलिए बहुवचन का प्रयोग होना उचित है और अभेद भी वास्तविक ही है, इसलिए एकवचन का भी प्रयोग प्राप्त है । एकवचन और बहुवचन इन दोनों का एक साथ प्रयोग होना सम्भवित नहीं है । 'कालभेद से एक * नन्वेवं पर्यायनयोद्भूतत्वप्रयुक्तवहुत्वविवक्षयैकत्रापि घटे 'घटाः' इति प्रयोगापत्तिः, द्रव्यनयोद्भूतत्वप्रयुक्तैकत्वविवक्षया च 'आपो' 'दारा' इत्यादावप्येकवचनापत्तिः, उभयविवक्षया च 'मनुष्यो गच्छन्ति' इत्यादि प्रयोगापत्तिः । एकत्वधर्मितावच्छेदककबहुत्वप्रकारकप्रत्यये इच्छाया हेतुत्वेऽपि 'एकत्र द्वयम्' इति न्यायेनैकवबहुत्वबोधस्याSप्रत्यूहत्वात् । ' एतादृशशब्दाऽसाधुत्वान्नैता आपत्तयः' इति चेत् ? तथापि साधुत्वभ्रान्त्या जायमानेदृशज्ञानप्रामाण्यापत्तिरिति चेत् ? अत्र वदन्ति - नयविवक्षायां यद्धप्रकारेणैकत्वबहुत्वविषयत्वं, तज्जन्यशाब्दबोधेऽपि तद्धर्मप्रकारेणैवेति नोक्तदोषः । 'घट एव रूपादय' इति द्रव्यार्थिकविवक्षया तथैव शाब्दबोधात्, 'घटो रूपादय एव' इति पर्यायार्थविवक्षया च तथैव शाब्दवोधात् । यदा तु द्रव्यपर्यायनययोरेकत्व बहुत्वाभ्यां नोद्देशो न वा विधानं, किंतु तदुपरागेण सत्त्वाद्यत्र प्रतिपिपादयिषितम् तदा ताभ्यां 'घटोऽस्ति' 'रूपादयः सन्ति' इत्येवाभिलापः । यदा तूभयगोचरयोर्धर्मधर्मभावेन प्रतिपिपादयिषा तदा घटस्य रूपादय इत्येवाभिलाप: । अवच्छेदकविनिर्मोकेनैकत्र बहुत्वं त्वनुशासनोपग्रहेणैव नयः प्रकाशयतीति नैकपादौ 'घटा' इत्यादिप्रयोगापत्तिः । साधुत्वभ्रान्त्या जायम नज्ञाने च विषयाबावरूपप्रमाण्यसत्त्वेऽपि स्वावच्छेदकधर्मानवधारणेन स्वपरव्यवसायित्वलक्षणं प्रामाण्यम् । [ इत्ययं पाठः टिप्पणकरूपेण स्वयं ग्रन्थकृता स्वलिखितहस्तादर्शे पार्श्वद्वयेऽधोभागे चोट कितः पूर्वमुद्रित पुस्तकेषु च ग्रन्थमध्य एव संयोजितो वर्त्तते] ।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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