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________________ २३ अथ "समुदितगुडशुण्ठीद्रव्यं प्रत्येकगुडशुण्ठीभ्यां विभिन्नमेकस्वभावमेव द्रव्यान्तरं, न तु मिथोऽभिव्याप्यावस्थितोभयस्वभावं जात्यन्तरमि " ति चेत् ? न तस्या (a) द्रव्यान्तरत्वे विलक्षण माधुर्यकटुकत्वाननुभवप्रसङ्गात् एकस्वभावत्वे दोपद्वयोपशमाहेतुत्वप्रसङ्गात् । नयरहस्य , दूसरा हेतु "अनुभवबाधरूप' है । उस का तात्पर्य यह है कि गुडशुण्ठी मिश्रण से बना हुआ जो चूर्ण होता है, उस के सेवन से माधुर्य और कटुकत्व का ही अनुभव होता है । यदि एकतरगुणपरित्याग पक्ष माना जाय तो यह अनुभव नहीं होना चाहिए, परन्तु यह अनुभव होता है । इसलिए भी एकतर गुण परित्याग पक्ष युक्त नहीं है, किन्तु उक्त चूर्ण द्रव्य में जात्यन्तर मानना ही युक्त है और इस दृष्टान्त से कथञ्चिद् भेदाभेदउभयात्मक वस्तु में जात्यन्तर मानकर ही प्रत्येक पक्षोक्त दोष का निवारण करना योग्य है । [गुडशुण्ठीद्रव्य द्रव्यांतर होने की शंका ] "अथ समुदित" इत्यादि यहाँ यह शंका होती है कि- "परस्पर मिश्रित गुडशुण्ठा को केवल गुड तथा केवल शुण्ठी से भिन्न द्रव्यान्तर ही माना जाय तथा उस द्रव्यान्तर को एक स्वभाव माना जाय, तो भी कफ-पित्त दोषकारिता की निवृत्ति हो सकती है, तब उस में विलक्षण जाति मानने की आवश्यकता नहीं रहती है । तब इस दृष्टान्त से कथञ्चित् भेदाभेद उभयस्वभाव वस्तु में जात्यन्तर की कल्पना कैसे करते हो ? तथा जात्यन्तरप्रयुक्त प्रत्येक पक्षोक्त दोषों का धारण भी कैसे कर सकते हो ? क्योंकि मिश्रित “गुडशुण्ठी" द्रव्य में गुड और शुण्टी इन दोनों को व्याप्त करके रहनेवाला कफ-पित्त इन दोनों दोषों का निवर्त्तक उभयस्वभाव जात्यन्तर हम मानते ही नहीं हैं और जो वस्तु वादि-प्रतिवादि इन दोनों को मान्य न हो वह वस्तु दृष्टान्त नहीं बन सकती है ।" - [ अतिरिक्त द्रव्यान्तर की कल्पना अयुक्त - उत्तर ] इस का उत्तर उपाध्यायजी ऐसा देते हैं कि गुडशुण्ठी के मिश्रण से बना हुआ चूर्ण द्रव्य यदि गुड और शुण्ठा से सर्वथा भिन्न माना जाय तो चूर्ण दशा में भी जो गुडगत विलक्षण माधुर्य का अनुभव होता है वह न होगा । तथा शुण्ठीगत विलक्षण कटुकत्व का जो अनुभव होता है, वह भी न होगा । इसलिए उस चूर्णात्मक द्रव्य को गुड और शुण्टी से सर्वथा भिन्न द्रव्यान्तर मानना उचित नहीं है । तथा द्रव्यान्तर मानने में यह भी दोष आता है कि यदि उस द्रव्यान्तर को एकस्वभाव कला माना जाय तो, वह द्रव्यान्तर कफ और पित्त इन दोनों दोषों में से किसी एक दोष के उपशम का कारण यद्यपि बन सकेगा, परन्तु कफ और पित्त इन दोनों दोषों के उपशम का कारण नहीं बन सकेगा । उभयस्वभाव जात्यन्तर मानने पर दोनों दोषों के उपशम का हेतु वह चूर्ण द्रव्य बनता है ऐसा अनुभव है, इसलिए जात्यन्तर मानना यही पक्ष श्रेष्ठ है और इस दृष्टान्त से कथञ्चित् उभयात्मक एकवस्तु में जात्यन्तर स्वीकार करके ही तत्प्रयुक्त प्रत्येक पक्षोक्त दोषों का वारण करना श्रेष्ठ है ।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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