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________________ नयरहस्ये बलाबलविमर्शः २३१ सर्वेषामपि मूलनयानाम् , अपिशब्दात्तभेदानां च, नयानां द्रव्यास्तिकादीनां बहुविधवक्तव्यता- 'सामान्यमेव, विशेषा एव, उभयमेव वाऽनपेक्षमित्यादिरूपांअथवा नामादीनां नयानां कः कं साधुमिच्छतीत्यादिरूपां-निशम्य श्रुत्वा, ततः सर्वनयविशुद्ध सर्वनयसम्मतं वचनं-'यच्चरणगुणस्थितः' साधुः । यस्मात्सर्वनया एव भावका आभास होता है वह इस प्रकार हैं कि कोई वादी सामान्यमात्र को पदार्थ मानता है, कोई विशेषमात्र पदार्थ मानता है, इन दोनों मंतों में परस्पर विरोध होना सम्भवित है । तब जिस मत पर जिस की श्रद्धा होती है, उस में उस को राग होता है, जिस मत पर श्रद्धा नहीं होती है, उस पर द्वेष होता है । नयज्ञान जिन को है, उन को तो विरोध का भान ही नहीं है क्योंकि वे समझते हैं कि सग्रहनय की दृष्टि से सामान्यमात्र को पदार्थ कहना ठाक ही हैं । व्यवहारनयकी दृष्टि से विशेषमात्र को पदार्थ मानना भी ठीक ही है, अतः जिनप्रतिपादित सभी पदार्थ युक्त ही हैं, इसतरह विरोध निवारण द्वारा जिनवाणी के विषयों में रुचि का सम्पादन नय के द्वारा होने पर, किसी पदार्थ में या मत में रागद्वेष नहीं रहता है, अत: वस्तुस्थिति को पहले न बताकर उस के प्रति कारणीभूत रागद्वेषविलयरूप नयवादों के फल को ही ग्रन्थकार ने बताया है। नय वादों का फल रागद्वेष का विलय ही है, इस वस्तु का समर्थन करने के लिए "भगवान भद्रबाहु के वचन का उद्धरण ग्रन्थकार ने किया है। सर्वेषामपि नयानां बहविधवक्तव्यतां निशम्य । तत्सर्वनयविशुद्ध यच्चरजगुणस्थितः साधुः ॥] इस गाथा की व्याख्या भी (श्री हरिभद्रमूरिविरचितवृत्ति से) यहाँ पर उदधृत की गयी है, इस उद्धरण से भी नयवादों का फल रागद्वेषविलय ही है' इस कथन में समर्थन मिलता है। उक्त गाथा को हरिभद्रीय वृत्ति में “सव्वेसिपि णयाणं' इस अश का विवरण-"सर्वेषामपि मूलनयानाम, अपिशब्दात् तदभेदानाञ्च" इसतरह किया गया है। यहाँ शंका उठती है कि नैगम, संग्रह आदि सातों नयों के मूलभूत नय दो ही माने गये हैं द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक । इन्हीं दोनों के प्रभेद नैगम, संग्रह आंदि माने नये हैं, इस का विवरण इस ग्रन्थ में पूर्व में किया गया है । "सिद्धसेन दिवाकर" आदि आचार्यो ने भी ऐसा ही कहा है । अतः "मूलनययोः भेदानाञ्च" इसतरह का विवरण होना चाहिए था। "मूलनयानाम्' ऐसा बहुवचन का प्रयोग तो मूलनय के भेद दो से अधिक होते तभी ही संगत होता?"-इस शंका का समाधान यह है कि जैसे-मृलनय के द्रव्यास्तिक. पर्यायास्तिक ये दो भेद माने गये हैं, वसे ही ज्ञाननय-क्रियानय, इस रूप से भी दो भेद माने गये हैं एवं व्यवहारनय-निश्चयनय इसतरह भी दो भेद माने गए हैं, इस आशय से 'हरिभद्रीयवत्ति" में "सर्वेषामेव मूलनयानाम्” इसतरह बहुवचनान्त पद द्वारा विवरण सांगत होता है। इन तीनों प्रकार के मूल भेदों की मान्यता भिन्न भिन्न है। "द्रव्यास्ति नय द्रव्यमात्र ही स्वीकारता है और “पर्यायास्तिकनय” पर्यायमात्र ही स्वीकार करता है इस लिए इन दोनों भेदों में विवाद उपस्थित होता है कि इन दोनों में से किस की मान्यता सत्य मानी जाय ? । एवं, ज्ञाननय और क्रियानय इस विभागपक्ष में भी मतभेद उपस्थित होता है। उपादेय और हेय अर्थों का ज्ञान होने पर ही मुक्ति हो सकती है।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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