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________________ ર૮ उपा. यशोविजयरचिते अत एव क्रियमाणमेतन्नये न कृतम् , कारणचक्रसम्पत्युत्तरमेव कार्य सिद्धेः । अन्यथा समसमयभावित्वे कार्यकारणभावव्यवस्थाऽयोगादुपादानोपादेयभावस्यापि पर यदि निश्चयनयवादी ऐसा कहें कि-"यद्यपि धूमकुर्वदरूपात्मक अग्नि ही धूम के प्रति कारण होता है । फिर भी वह अग्नि जिसप्रकार का है वैसे ही अकुर्वदरूपअग्निक्षण कुर्वदुरूपअग्नि से पूर्वपूर्व क्षणों में भी मिलते हैं, अतः अग्निसामान्य में धूम के प्रति कारणता का ज्ञान सरलता से हो जायगा। एव', कुर्व दरूपअग्नि से जो धूमक्षण उत्पन्न होता है, उस का सादृश्य तदुत्तरवर्ती धूमक्षणों में रहता है, यद्यपि वे धूमक्षण स्वपूर्ववर्ती धूमक्षण से ही उत्पन्न होते हैं तथापि सादृश्य की महिमा से सभी धूमक्षणों में अग्निनिरूपितकार्यता का ज्ञान हो सकेगा । अतः धूमसामान्य के प्रति अग्निसामान्य में कारणताग्रह होने से कार्य लिंगक कारणानुमान का उच्छेद नहीं होगा"-तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वापरवर्ती अग्निक्षणों में अथवा पूर्वापरवर्ती धूमक्षणों में सादृश्य का ज्ञान तभी हो सकता है यदि पूर्वापरवर्तीक्षणों का ज्ञाता कोई स्थिर माना जाय, ऐसा तो निश्चयनय मानता ही नहीं है क्योंकि उस के मत में सभी पदार्थ क्षणिक माने जाते हैं। अतः पूर्वापरक्षणों का अनुसंधान ही उस के मत में सम्भव नहीं है तो सादृश्य का भी ज्ञान नहीं हो सकता है, तब सादृश्य की महिमा से सकलअग्निक्षणों में कारणता का ज्ञान और सकल धूमक्षणों में कार्य ता का ज्ञान भी नहीं हो सकता है, इसलिए सामान्यरूप से कारणताग्रह न होने के कारण कार्य लिंगक कारणानुमान का उच्छेदरूप दोष उस के मत में लगा ही रहता है । इस रीति से और भी दोष निश्चयनय के मत में पूर्व के आचार्यों ने "अनेकांतजयपताका" आदि ग्रन्थों में बताए हैं । जिज्ञासुलोगों को उन दोषों का परिज्ञान उन्हीं ग्रन्थों से करना चाहिए । [अत एव क्रियमाणम्] व्यवहारनय कुर्व दुरूपत्वेन चरम कारण को हा कारण नहीं मानता है किंतु कार्य नियतपूर्ववर्तीत्वेन अकुर्व दुरूप को भी कारण मानता है, इसी हेतु से इस के मत में, क्रियमाण कृत नहीं होता है । सकल कारण का समवधान जब तक नहीं आ है, तब तक घटादिकार्य क्रियमाण ही कहा जाता है । कारणचक्र का ममवधान होने के बाद ही कार्य की सिद्धि होती है और उसी दशा में कार्य कृत कहा जाता है। चक्र से उतारने के बाद घट को निभाडे में पक्व करने के लिए रखा जाता है, जब के उस में से घट निकाला नहीं जाता है, तब तक घट इस मत में क्रियमाण ही कहा जाता है। पाक से उत्तीर्ण होने पर घट में सिद्धता आती है तब वह घट 'कृत' कहा जाता है, क्योंकि घट की सिद्धि के लिए किसी कारण की सम्पत्ति या समवधान तब आवश्यक नहीं रहता है। यदि कुर्व दुरूप ही कारण माना जाय तो कार्यकाल में ही चरमकारण कुर्व दरूपत्व को प्राप्त करता है । तब कार्य और कुर्व दरूपात्मक कारण ये दोनों का समय समान ही रहता है, इसलिए कार्यकारणभाव की व्यवस्था भी निश्चयनय के मत में नहीं बन सकती है। “गो" आदि पशुओं के दो शृङ्ग एक ही समय में निकलते हैं, उन में कोई आङ दूसरे शङ्ग के प्रति कारण नहीं बनता है, उसीतरह समसमय भावि कर्वमा और घटादि कार्य इन दोनो में भी कोई किसी का कारण नहीं बन सकता है।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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