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________________ नयरहस्ये कारणताविमर्शः २२७ स्वरूपक्षणों से ही उपादेयरूप चरमक्षण कुर्वदरूपात्मक ही उत्पन्न होता है । जैसे-उपादान रूप पूर्वपूर्व बीज क्षणों से उपादेयरूप उत्तरोत्तरबीजक्षण उत्पन्न होते हैं । उन में चरमबीजक्षण स्वोपादानभूत स्वाव्यवहितपूर्ववर्ती बोजक्षण से उत्पन्न होता हुआ अंकुरकुर्वदूपत्व विशिष्ट ही उत्पन्न होता है और उस क्षण से अंकुररूप कार्य की उत्पत्ति हो जाती है। इसीतरह घटादि कार्योत्पादक चरमउपादानक्षण भी अपने उपादानक्षण से घसदिकुर्वदरूपात्मक ही उत्पन्न होता है और उस से घटादि कार्य की उत्पत्ति होती है, इसलिए कुर्वदरूपत्व क्षणों से नियमित होता है, अतः कुर्वदरूपत्व के नियम के लिए सहकारिसम्पत्ति की आवश्यकता ही नहीं पडती है । इस स्थिति में सहकारि समवधान के द्वारा कुर्वर दुरूपत्व के अभ्युपगम को निरर्थक बनाना व्यवहारनयवादी का संगत नहीं होता है" परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि उपादानउपादेयभाव जिनक्षणों में रहता है वे सभी क्षण क्षणत्वरूप से समान ही है। अतः सभी क्षणों का स्वभाव पक ही है, तब चरमक्षणोत्पादक उपान्त्य उपादानक्षण में यह विशेष किसी भी प्रकार से नहीं आ सकता है, जिस से वह उपान्त्यक्षण कुर्वदरूपत्वविशिष्टचरमक्षण को उत्पन्न कर सके । इस स्थिति में क्षणों के द्वारा ही कुर्बदुरूपत्व का नियमन होता है, यह निश्चयनयवादी की मान्यता ही गलत है । उपरान्त क्रियानयवाही के मत में तीसरा दोष यह आता है कि वे लोग भी कार्य लिंगक कारणानुमान मानते हैं, व्यवहारनयवादीमा मानने हैं, परन्तु निश्चयनयवादी के मत में कार्य लिंगक कारणानुमान का उच्छेद हो जायगा । __ “पर्वतो अमिमान् धूमात्" यह कार्य लिङ्गक कारणानुमान माना जाता है इस में धूमरूप कार्य है लिंग और अग्निरूप कारण लिंगी है। धूम के प्रति अनि कारण है, इसतरह के कार्यकारणभाव का ज्ञान जिस व्यक्ति को है, उस को यदि पर्वतादि स्थल में धूम का दर्शन होता है, तब "यह पर्वत अग्निवाला है" इसतरह का ज्ञान उस व्यक्ति को होता है, क्योंकि वह समझता है कि धूम जो पर्वत में देख रहा हूँ, वह अग्नि के बिना हो सकता नहीं है, क्योंकि वह अग्नि से उत्पन्न होता है। यदि अग्नि तो धूम भी न होता । धूम तो प्रत्यक्ष ही है, तो अग्नि भी जरूर इस पर्वत पर है । यही कार्यलिङ्गक कारणानुमिति का स्वरूप है । अग्नित्वेन अग्निसामान्य को धूम सामान्य के प्रति कारण निश्चयनयवादी तो मानते ही नहीं हैं। उन के मत में जो अग्निक्षण धूमकुर्वदरूपात्मक उत्पन्न होता है वही अग्निक्षण धूम के प्रति कारण माना गया है। अन्य अग्निक्षण जो कुर्वदरूपत्वविशिष्ट नहीं उत्पन्न हुए हैं, वे धूम के प्रति कारण नहीं माने गए हैं, इसीलिए सकलअग्निक्षणों में धूमकारणता का ज्ञान निश्चयनय की दृष्टि से नहीं हो सकता है। एवं धूमकर्वदरूपात्मक अग्निक्षण से प्रथम धूमक्षण उत्पन्न होता है, उस के बाद पूर्वपूर्व धूमक्षण से उत्तरोत्तर धूमक्षण उत्पन्न होते हैं, उन क्षणों में उपादानोपादेयभाव निश्चयनयवादी मानते हैं, अतः सकलधूमक्षण किसी एक अग्निक्षण के कार्य भी उन के मत में नहीं माने गए हैं । इस स्थिति में धूमसामान्य के प्रति अग्निसामान्य में कारणता का ज्ञान ही उन के मत में नहीं हो सकता है, क्योंकि इसतरह की सामान्यरूप से कारणता का ग्राहक प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण नहीं है। अतः कार्य से कारण का अनुमान उन के मत में नहीं हो सकता है। इसलिए भी कुर्वदुरूपत्व विशिष्ट चरमक्षण में ही कारणत्व का स्वीकार करना संगत नहीं है। ---- -ोनिअरिम रात में नहाना
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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