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________________ नयरहस्य कारणताविमर्शः २०५ तत्र कृतत्वाद्यप्रवेशाद् आर्थादेव सामाजात् कृतत्वोपपत्तेः । यदि च क्रियमाणं न कृतम्, तदा क्रियासमये कार्याभावात्तत्पूर्व तत्पश्चाच्च कारणाभावात्तत् कार्य न भवेदेव । 'सामग्रयास्तदुत्तरसमय एव कार्यव्याप्यत्वोपगमान्नैष दोष' इति चेत् ? न सामग्रीसमयस्यैव कार्यव्याप्यत्वोपगमौचित्यात् , व्याप्तावुत्तरत्वाऽप्रवेशेन लाघवात् , कारणाभावस्येव कार्याभावव्याप्यत्वेन कारणोत्तरकालेऽपि कार्याऽसिद्धेश्च ॥ जो दीर्घकाल वह भी घटनिष्पादक क्रिया का काल है, ऐसा अनुभव प्रायः सभी को होता है । जिस समय में घट का आरम्भ होता है, उसी समय में वह निष्पन्न हो जाता है, इसतरह का अनुभव तो किसी को होता ही नहीं है, इस स्थिति में क्रियमाण घटादि कृत ही है यह कैसे माना जाय ?। इस शंका का समाधान देने के लिए उक्त "विशेषावश्यक भाष्य गाथा" का उत्थान हुआ है। वर्तमान क्रियाधिकरण प्रत्येक क्षण में भिन्न भिन्न कार्य कोटि अर्थात अनेक कार्य यद्यपि उत्पन्न होते हैं, तो भी घटार्थिव्यक्ति उन उन कार्यों की अपेक्षा नहीं रखता हैं क्योंकि उन कार्यों से जलाहरणादि कोई भी प्रयोजन नहीं हो सकता, वह प्रयोजन तो घट से ही सिद्ध होता है, इसलिए 'यहाँ घट उत्पन्न हो' ऐसी ही अभिलाषा घटार्थी को होती है, अतः प्रतिसमय होनेवाले कार्यो को वह नहीं देख सकने के कारण स्थूलमति माना जाता है । वह स्थूलमतिवाला घटार्थी उन उन कार्यकारियों के सम्बन्धी सभी कालों को घटसम्बन्धी काल ही मान लेता है, यद्यपि यह मानना उस का मिथ्या अनुभव है क्योंकि एक सामयिक घट को बहुसामयिक मानता है। यहाँ यह भी शंका ऊठ सकती है कि-"यदि प्रतिसमय भिन्न भिन्न कार्य काटि उत्पन्न होती हो तो उन की भी उपलब्धि होनी चाहिए, जैसे कि-मध्यकाल में शिबक, स्थास, कोश आदि उपलब्ध होते हैं । अतः प्रतिसमय में कार्यकोटियाँ अनुपलब्धि से बाधित क्यों न मानी जाय ?"-इस का समाधान यह है कि प्रतिसमय में होनेवाली कार्यकोटियों के ग्राहकज्ञान अनन्त सिद्धों को और केवलियों को भी होता है, अल्पज्ञ व्यक्ति उन सूक्ष्म कार्यकोटि को नहीं देख सकते हैं, अतः वे कार्य अनुपलब्धिबाधित नहीं माने जा सकते हैं । उक्त गाथा का यह विशद अर्थ है, इस से यह सिद्ध होता है कि घटादि कार्य एकसामयिक ही होता है, वह समय चरमसमय ही है क्योंकि चरमसमय में ही घटादि के कारण का समवधान होता है । अतः क्रियमाण कार्य नियमतः कृत ही होता है, इसतरह पूर्वपक्षी के कथन का समर्थन उक्त गाथा से प्राप्त हो जाता है। इस गाथा के तृतीयपद में “पइसमय कज्जकोडिं" ऐसा पाठ हस्तलिखित कितनी प्रतियों में मिलता है, परन्तु - उक्तगाथा की “मल्लधारि श्रीहेमचन्द्रमरि" विरचित ब्रहदवत्ति में “पइसमय कज्जकाल' इस पाठ के अनुसार ही गाथा का व्याख्यान किया गया है, इसलिए तदनुसारी पाठ को ही यहाँ समझना जरूरी है। हस्तप्रतिलिखित पाठ की संगति भी चतुर्थपादगत “घडम्मि" पदार्थ के साथ नहीं हो पाती है ॥] [कृतस्यैव] अगर यहाँ आशंका हो कि-'क्रियमाण यदि कृत ही है तो कृतवस्तु के करने के लिए कोई क्रिया की जाय तो वह क्रिया निष्फल ही होगी क्योंकि कार्य की निष्पत्ति
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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