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________________ २०४ उपा. यशोविजयरचिते माणः कृत एवेति चेत् ? न, क्रियाया दीर्घकालत्वाऽसिद्धेः चरमसमये तदभ्युपगमात् । घटगताभिलाषोत्कर्षवशादेव मृन्मदनाद्यान्तरालिककार्यकारणवेलायां 'घटं करोमी'तिव्यवहारात् । तदुक्तम्-(वि० भाष्ये) "पइसमयकज्जकोडीणिरवेक्खो वडगयाहिलासो सि । पइसमयकज्जकालं थूलमई घडंमि लाएसि ॥२३१८॥ इति । 'कृतस्यैव करणे क्रियावैफल्यमि'त्यपि न रमणीयम् क्रिययेव निष्ठां जनयित्वा कार्यस्य कृतत्वोपपादनात् । “कृतमेव क्रिया जनयति नाऽकृतम् असत्त्वात्, क्रियाजनितत्वाच्चकृतमित्यन्योन्याश्रय" इति चेत् ? न, घटत्वादिनैव घटादि क्रियाजन्यत्वात् , का दीर्घकाल अनुभव में आता है, जिस में मिट्टि का आनयन और उस का मर्दन, चक्र के उपर उस का स्थापन, कुलाल का दण्डग्रहण तथा दण्ड का घट के साथ योजन और उस दण्ड से भ्रमण के लिए चक्र का दृढरूप से प्रेरण, उस के बाद चक्र का भ्रमण, उस के साथ चक्र के उपर पिण्ड का भ्रमण, घूमते हुए मिट्टीपिण्ड में कुलाल की हस्तकला, उस के बाद तन्तुविशेष से घट का छेदन-इतनी क्रियाओं का होना दिखता है। इस दीर्घकाल में जिस क्षण में घट का क्रिया का प्रारम्भ होता है, उस क्षण में भी यदि वह निष्पन्न माना जाय तो उस क्षण में भी घट का प्रत्यक्ष होना चाहिए तथा चक्रभ्रमणादि क्रियाकाल में भी उस का प्रत्यक्ष होना चाहिए क्योंकि चरमसमय में जैसे वह घटादि कार्य निष्पन्न रहता है, वैसे ही उस से पूर्वपूर्वक्षणों में भी निष्पन्न रहता है।'-इस शंका का समाधान यह है कि घटकुर्वदरूप क्रिया तो उसीकाल में होती है जिस क्षण में घट उत्पन्न होता है, वह समय एक चरमसमयरूप ही है । इसीलिए घटकुर्वदरूपात्मक क्रिया में दीर्धकालत्व होता ही नहीं है, अतः चरमसमय में ही घट में क्रियमाणत्व और कृतत्व ये दोनों रहते हैं। इसलिए मिट्टी के आनयनादि काल में घट की उपलब्धि नहीं होती है। यदि यह कहा जाय कि 'मिट्टी का आनयन, मर्दन आदि पूर्वक्षणों में भी “घ करोमि" यह जो व्यवहार होता है, वह कैसे बनेगा क्योंकि आपने चरमसमय में ही घट में क्रियमाणत्व का सिद्धान्त मान लिया है ?' इस का समाधान यह है कि मिट्टी के आनयनकाल से लेकर चक्र पर से घट को उतारने तक मध्यवर्ती तत्तत्क्षणात्मक काल में भी भिन्न भिन्न बहुत कार्य उत्पन्न होते हैं, परन्तु उन कार्यों की गणना अल्पज्ञ लोक कर पाते नहीं हैं किन्तु उन प्रत्येक समयों में होनेवाले कार्य के सम्बन्धी सभी कालों को 'घटोत्पत्ति का ही यह काल है' ऐसा मान लेते हैं। इस का कारण यह है कि उस काल में 'यहाँ घट की उत्पत्ति हो' ऐसी प्रबल अभिलाषा लोगों की रहती है, क्योंकि लोगों का प्रयोजन जलाहरणादि, घट से ही सिद्ध होता है, अतः घट को ही प्रधान मान लेते हैं । तत्तत्क्षणों में उत्पन्न आन्तरालिक अन्य कार्यो की उपेक्षा कर देते हैं । इसलिए "घटं करोमि" ऐसा व्यवहार होता है। इस वस्तु का समर्थन करने के लिए पूर्वपक्षी "विशेषावश्यक भाष्य” की गाथा का यहाँ प्रदर्शन कर रहा है, ["प्रतिसमयकार्यकोटीनिरपेक्षो घटगताभिलाषोऽसि । प्रतिसमयकार्यकाल स्थूलमते ! घटे लग. यसि" ॥ इति ।] उस का तात्पर्यः-मिट्टी के आनयन से आरम्भ करके तन्तुछेद पर्यन्त
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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