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________________ १८४ उपा. यशोविजयरचिते नियमश्च कालतो देशतश्चेति न समभिरूढातिव्याप्तिरपि । अयं खल्वस्य सिद्धान्तः, यदि घटपदव्युत्पत्त्यर्थाभावात् कुटपदार्थोऽपि न घटपदार्थस्तदा जलाहरणादि क्रियाविरहकाले घटोऽपि न घटपदार्थोऽविशेषादिति ॥ उपरोक्त अर्थ को प्रमाणित करने के लिए ग्रन्थकार ने विशेषावश्यक सूत्र का उद्धरण किया है-वंजण अत्थ-इत्यादि (व्यञ्जनार्थ तदुभयमेवम्भूतो विशेषयति) इस का अर्थ यह है कि शब्द और अर्थ इन दोनों को "एवम्भूतनय" विशेषित करता है अर्थात् वाचक शब्द को चेष्टाविशिष्ट धटरूप अर्थ के द्वारा नियन्त्रित करता है और अर्थ को भी शब्द के द्वारा नियन्त्रित करता है। इस से यह सिद्ध होता है कि जो शब्द चेष्टावान् अर्थ को बोधित करता है वही शब्द घट शब्द है एवम् चेष्टाविशिष्ट अर्थ ही घटरूप अर्थ है, इसतरह अर्थ को भी शब्द से नियंत्रित करता है । इस प्रकार ग्रन्थकार का लक्षणवाक्य और विशेषावश्यक का सूत्रवाक्य इन दोनों का एक ही अर्थ विचार करने से फलित होता है। विशेषावश्यक सूत्र वाक्य से स्वकृत लक्षण को समर्थित करने के बाद ग्रन्थकार उस लक्षण को तत्त्वार्थ भाष्य के द्वारा भी समर्थन करते हैं इसलिए तत्त्वार्थ भाष्य के अंश का इस ग्रन्थ में उद्धरण किया है-'व्यञ्जनार्थ योरेवम्भूत' इति । व्यञ्जनश्च, अर्थश्च यह द्वन्द्वसमास है । "व्यञ्जन" पद से वाचक घटादि शब्द और अर्थ पद से घटादि शब्द का वाच्यार्थ विवक्षित है । एवम्भूतनय शब्द और अर्थ इन दोनों को संघटित करता है अर्थात् शब्द को अर्थ से विशेषित करता है और अर्थ को शब्द से विशेषित करता है। इस का आशय यह है कि (१) “घट' यह शब्द उसी अर्थ का वाचक है जो अर्थ जलधारण में समर्थ हो तथा जलानयन क्रिया करता हो और (२) घट शब्द का अर्थ वही घट है जो जलानयनरूप चेष्टा को करता हो। चेष्टा से निवृत्त हआ गृह के किसी एक कोने में पड़ा हुआ घट, घटशब्द का अर्थ नहीं है । इन दोनों वाक्यों में पूर्व वाक्य से अर्थ द्वारा शब्द का नियन्त्रण किया गया है, और द्वितीय वाक्य से शब्द के द्वारा अर्थ का नियन्त्रण किया गया है। इसतरह दोनों का नियमन मानने वाला अध्यवसाय "एवम्भूत" कहा जाता है। [ व्युत्पत्त्यर्थ से अन्वित अर्थ का स्वीकार ] प्रामाणिक आचार्यों के वचनों द्वारा स्वकृतलक्षण का समर्थन करने के बाद ग्रन्थकार तार्किक रीति से एवम्भूत का परिष्कृत लक्षण बताते हैं। (तत्त्वं च०) परिष्कृत लक्षण बताने का यह अभिप्राय है कि लक्षण में अतिव्याप्ति आदि की शका निर्मूल हो जाय । परिष्कृत लक्षण में “पदानाम्' यहाँ छट्ठी विभक्ति प्रयुक्त है, छड्डी विभक्ति का अर्थ वृत्तित्त्व होता है, जिस का अन्वय “व्युत्पत्त्यर्थान्वयनियतार्थ बोधकत्व" के साथ है और “बोधकत्व" का अन्वय "अभ्युपगन्तृत्वम्" इस के घटक अभ्युपगम क्रिया में कर्मतानिरूपकत्व सम्बन्ध से है । “अभ्युपगन्तृत्व" का अन्वय आश्रयता सम्बन्ध से अभिप्रायविशेष में है । समग्र लक्षण का अर्थ:-पदवत्ति जो व्युत्पत्त्यर्थान्वयनियतार्थबोधकत्व, तत्कर्मक जो अभ्युपगम, तत्कर्तृत्वाश्रय जो अभिप्राय विशेष, वही एवम्भूतनय कहा जाता है । घट पद की "घटते इति घटः" "घटयति वा घटः" इस व्युत्पत्ति से 'चेष्टारूप अर्थ का आश्रय' यह
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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