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________________ नयरहस्ये एवम्भूतनयः १८३ "व्यञ्जनार्थविशेषान्वेषण परोऽध्यवसायविशेष एवम्भूतः ॥"वंजण - अत्थ - तदुभयं एवम्भूओ विसेसे" इति [ अनु०१५२] सूत्रम् ॥ " व्यञ्जनार्थयोरेवम्भूत इति" तत्त्वार्थभाव्यम् ।। तत्त्व ं च पदानां व्युत्पत्त्यर्थान्वय नियतार्थबोधकत्वाभ्युपगन्तृत्वम् । सारूप्य रहने पर पदों का एकशेष हो, किन्तु जिन पदों में स्वरूपतः सादृश्य हो उन्हीं पदों में एकशेष होता है यही तात्पर्य व्याकरणानुशासन का मान्य है । एकपद में दूसरे पद का सारूप्य समानानुपूर्वीकत्वरूप ही हो सकता है । प्रथम हरिपद में हकारोत्तरत्वविशिष्ट जो अकार तदुत्तरत्वविशिष्ट जो रेफ तदुत्तरत्वविशिष्ट इत्वरूप आनुपूर्वी रहती है वही आनुपूर्वी द्वितीय हरिपद में भी रहती है इसलिए समानानुपूर्वीकत्वरूप पदसारूप्य दोनों हरि पदों में रहता है । इसी पदसारूप्य को व्याकरणानुशासन एकशेष का प्रयोजक मानता है । अतः "हरी" इत्यादि स्थल में अर्थसारूप्य न होने पर भी एकशेष होने में कोई बाधक नहीं है, तब संज्ञाभेद से अर्थ भेद को जो समभिरूढ मानता है, वह व्याकरणानुशासनविरुद्ध नहीं कहा जा सकता है । “समभिरूढनय” को भी "साम्प्रतनय" के जैसे भावनिक्षेप ही मान्य है क्योंकि वर्तमान भावमात्र को ही यह नय मानता है - इसका विवेचन पूर्व में कर दिया गया 1 [ एवम्भूतनय - व्यंजन और अर्थ का अन्योन्य विशेष ] ( व्यञ्जनार्थ) एवम्भूत के लक्षण में 'व्यज्यतेऽर्थः अनेन' इस व्युत्पत्ति अनुसार व्यञ्जन पद से घटादि वाचकशब्द विवक्षित है । अर्थ पद से “अर्ध्यते जनेन यः स अर्थ: " इस व्युत्पत्ति के अनुसार चेष्टावान् घटादिरूप अर्थ विवक्षित है । " व्यञ्जन में अर्थकृत विशेष" और "अर्थ में व्यञ्जनकृत विशेष" इन दोनों की अपेक्षा जिस अध्यवसाय विशेष को होवे, वही अध्यवसायविशेष एवम्भूत का लक्षण है । यहाँ यह विचार करना है कि घटादिरूप वाचक शब्द में अर्थकृत विशेष क्या है और घटादिरूप अर्थ में वाचकशब्दकृत विशेष क्या है, जिन दोनों की अपेक्षा " एवम्भूत नय" को रहती है । इस प्रसंग में विशेषावश्यकभाष्यकार ने 'जह घडसद्दं चेट्ठावया, तहा तं पि तेणेव' [ २२५२ ] यह कह कर स्पष्टीकरण कर दिया है । ("यथा घटशब्द चेष्टावता, तथा तामपि तेनैव') इस का भावार्थ ऐसा है कि एवम्भूतनय घटादिरूप बाचकशब्द को जैसे उस शब्द से वाच्य चेष्टावान् अर्थ के द्वारा विशेषित करता है, अर्थात् वही घटशब्द है जो चेष्टावान् अर्थ को बताता है और अन्य अर्थ को नहीं बताता है, इस रूप से शब्द को नियमित करता है, उसीतरह चेष्टावान् घटरूप अर्थ को भी वाचक शब्द से विशेषित करता है, अर्थात् किसी स्त्री के मस्तक पर आरूढ घट की जो जलाहरणादिरूप किया होती है तादृश क्रियायुक्त घट ही घटशब्द का अर्थ है - इस रूप से अर्थ को भो नियमित करता है । गृहकोणादि में स्थित घट अथवा जलपूरणादि क्रियाविशिष्टघट घटशब्दवाच्य नहीं है, किंतु जलाहरणक्रिया युक्त, स्त्रीमस्तकारूढ घढ़ ही घटशब्द का वाच्य है, इस तरह का व्यव स्थापन एवम्भूतनय करता है। अन्यकाल में वह घट, घट न होकर अघट ही रहता है, क्योंकि पटादिरूप अन्यवस्तु की तरह उस में भी जलाहरणादिरूप चेष्टा नहीं रहती है. और अन्यकाल में घटध्वनि भी अवाचक हैं, यह एवम्भूत का आशय है । "
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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