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________________ नयरहस्ये समभिरूढनयः रूपेण तत्पदशक्तिः , भवति च घटपदादिव कुटपदादपि घटत्वेनैवार्थबोध इति घटकुटपदयोः पर्यायत्वमेव युक्तमिति चेत् ? न, घटनकुटनादिविभिन्न क्रियापुरस्कारेणैव घटकुटादिपदेभ्योऽर्थबोधात् । तेषामर्थभेदनियमादसमानाधिकरणपदत्वापेक्षयालाघवाद् भिन्नपदत्वावच्छेदेनैव भिन्नार्थत्वकल्पनात् पर्यायपदाऽप्रसिद्धेः । "व्युत्पत्त्यर्थबोध विनापि दृश्यते पदार्थबोध" इति चेत् ? न, अन्यत्र विपरीतव्युत्पन्नात्तद सिद्धेः । “हन्त ! एवं पारिभाषिकशब्दस्यानर्थकत्वमापन्नमि"ति चेत् ? आपन्नमेव, किं हन्तेति पूत्कारेण ? तदुक्तम्-“तत्र परिभाषिकी नार्थतत्त्व ब्रवीती"ति। यदि यह कहा जाय कि-"जिस पदार्थ का जिस रूप से बोध जिस पद के द्वारा होता है, उस पद की शक्ति उसी रूप से उस अर्थ में माननी चाहिए । जैसे घटपद से घटरूप अर्थ का बोध घटत्वरूप से होता है, वसे ही कुटपद से भी घटरूप अर्थ का बोध घटत्वरूप से ही होता है, ऐसा अनुभव है, इसलिए घट और कुट इन दोनों पदों का एक ही अर्थ मानना युक्त है और इन दोनों पदों में पर्यायत्व को स्वीकार करना ही युक्त है । पदभेद से अर्थभेद मानना युक्त नहीं है"। परन्तु यह कहना संगत नहीं है, क्योंकि घट शब्द से घटनक्रिया के पुरस्कार से चेष्टाश्रय घट का बोध होता है और कुट पद से कुटनक्रिया के पुरस्कार से कौटिल्ययुक्त घट का बोध होता है, एकरूप से दोनों पदों से घट का बोध होता ही नहीं है, इसलिए घट, कुट इन दोनों पदों में पर्यायता को मानना अनुभवविरुद्ध है। वस्तुस्थिति तो यह है कि घटकुटादि पदों में पर्यायता हो ही नहीं सकती है, इसलिए पर्यायशब्द है ही नहीं, उस की अप्रसिद्धि है। कारण, "जो जो असमानाधिकरणपद हैं, वे वे भिन्नार्थक हैं" इस नियम को मानने की अपेक्षा "जो जो भिन्न पद है, वे सभी भिन्नार्थक हैं" इस नियम की कल्पना में लाघव है । असमानाधिकरणपदत्व को भिन्नार्थकतावच्छेदक मानने की अपेक्षा से भिन्नपदत्व को ही भिन्नार्थतावच्छेदक मानने में लाघव है । असमानाधिकरण पदत्व को भिन्नार्थतावच्छेदक मानने के पक्ष में घटपटादि पद में ही भिन्नार्थत्व सिद्ध होता है क्योंकि “भिन्नप्रवृत्ति निमित्तानां शब्दानां भिन्नार्थबोधकत्व' असमानाधिकरण्यम्" यह असमानाधिकरण्य का लक्षण घटपद और पटपद में घटता है, क्योंकि घटपद घटत्वरूप प्रवृत्तिनिमित्त के द्वारा घटरूप अर्थ का बोधक होता है और पटपद पटरूप अर्थ का बोधक होता है । घटकुटादि पद में घटत्वरूप एक प्रवृत्तिनिमित्त द्वारा अर्थबोधकता मानने पर घटकुटादि पदों का अर्थभेद सिद्ध नहीं हो सकेगा, इसलिए भिन्नपदत्व को ही भिन्नार्थतावच्छेदक मानना योग्य है क्योंकि असमानाधिकरणपदत्वापेक्षया भिन्नपदत्व का शरीर लाघुभूत होने से लाधव होता है और घटकुट आदि पदों में भिन्नार्थकत्व भी सिद्ध होता है, क्योंकि असमानाधिकरण पदत्यापेक्षया भिन्नपदत्व का शरीर लघुभूत होने से लाघव होता है और घटकुट आदि पदों में भिन्नार्थकत्व भी सिद्ध होता है, क्योंकि, घटकुटादि पदों में परस्पर भेद रहता है। इस रीति से "पर्याय" पद मानने की आवश्यकता भी नहीं रहती है।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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