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________________ उपा. यशोविजयरचिते अयं खल्वस्याभिमानः यदुत यदि शब्दो लिंगादिभेदेनार्थ भेदं प्रतिपद्यते तर्हि संज्ञाभेदेनापि किमित्यर्थभेद न स्वीकुरुते ? ' अनुशासनबलाद् घटकुटादिशब्दानामेकत्र सङ्केतग्रहादिति चेत् ? ऋजुसूत्रेणै[?]व तेनान्यथागृहीतोऽपि संकेतो विशेषपर्यालोचनया किमिति न परित्यज्यते ! अथ येन रूपेण यत्पदार्थबोधस्तेनैव है, अतः विशेषणांश एवम्भूत में घटमान न होने से परिष्कृत लक्षण की अतिव्याप्ति का प्रसङ्ग नहीं रहता । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि शब्दभेद से अर्थभेद को माननेवाले समभिरूढ और एवम्भूत इन दोनों नयों को पर्याय शब्द मान्य नहीं है । पर्याय का लक्षण है " अभिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानां शब्दानां एकार्थबोधकत्वं पर्यायत्वम्" यह लक्षण इन दो नयों की दृष्टि से घट - कुट-कुम्भ आदि शब्द जो परस्पर पर्यायरूप से व्यवहृत होते हैं, उन में नहीं घटता है क्योंकि घट-कुट-कुम्भ आदि शब्दों का प्रवृत्तिनिमित्त एक घटरूप अर्थ नहीं है. किन्तु घट शब्द का प्रवृत्ति निमित्त चेष्टाश्रयत्व, कुटपद प्रवृत्तिनिमित्त कौटिल्याश्रयत्व और कुम्भ पद का प्रवृत्तिनिमित्त पूरणाश्रयत्व हैं । प्रवृत्तिनिमित्त तथा व्युत्पत्तिनिमित्त में भेद भी इन को मान्य नहीं है । व्युत्पत्तिनिमित्त ही इन के मत में प्रवृत्तिनिमित्त भी है । ' वाच्यत्वे सति वाच्यवृत्तित्वे सति वाच्योपस्थितिप्रकारताश्रयत्वरूप प्रवृत्तिनिमित्तत्व" जो अन्यनयों को मान्य है, वह इन दोनों को मान्य नहीं है, किन्तु घट-कुटादि शब्द में जो मूलभूत धातु के अर्थ होते हैं, तदाश्रयत्वरूप व्युत्पत्तिनिमित्त ही प्रवृत्तिनिमित्त माना गया है, इसलिए सज्ञा के भेद से अर्थ का भेद इन के मत में सिद्ध होता है । १७८ [ संज्ञा भेद से अर्थभेद में गूढाशय ] [ अयं खलु ] समभिरूढ का यह अभिमान है कि स्त्रीत्व, पुंस्त्वादि लिंग के भेद से अर्थ का भेद यदि शब्दनय मानता है, तथा एकवचन बहुवचन के भेद से यदि अर्थभेद मानता है तो संज्ञा के भेद से भी अर्थभेद उसे मानना चाहिए । सज्ञा के भेद से अर्थभेद को नहीं स्वीकार करना यह सांप्रत का हठाग्रह मात्र हैं, प्रामाणिक नहीं हैं । यदि यह कहा जाय कि - "घट, कुट, कुम्भ आदि शब्दों के एक ही अर्थ में संकेत का ज्ञान कोश आदि अनुशासनों से सिद्ध है, इसलिए संज्ञा का भेद रहने पर भी अर्थभेद न मानना यह प्रामाणिक ही है ।" तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवहारनय के अनुकूल अनुशासन के बल से घटादि शब्दों का घटत्वादिधर्मावच्छिन्न भूत, वर्त्तमान, भविष्यत् सकल घटों में शक्तिग्रह होने पर भी विशेष विचार करने पर उस संकेत को ऋजुसूत्र जैसे त्याग देता है और वर्त्तमान घटादिरूप अर्थ में ही घटादि पद का संकेत मानता है, उसी तरह “साम्प्रतनय" को भी घटकुटादि शब्दों का कोशादि अनुशासन के द्वारा घटरूप एक अर्थ में जो संकेतग्रह होता है, विशेष विचार करने पर, उस का त्याग कर के कुटादि शब्दों का क्रियाभेद से भिन्न भिन्न अर्थों में संकेत मानना चाहिए - यही उचित है ।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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