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________________ १७५ नयरहस्ये समभिरूढनय इत्याद विकाराsविकाराद्यर्थक क्रियानामादिपदानां सामानाधिकरण्यानुपपत्त्या व्यवहाराभिमतशाब्दबोधसामग्री विघटनेन भिन्नार्थकल्पना स्वीक्रियते तदा लिङ्गादिभेदेऽपि शाब्दसामानाधिकरण्यानुपपच्या किं न तथाकल्पने अभिनिवश्यत इति ॥ अस्य चोपदर्शिततो भावनिक्षेप एवाभिमतः ||५|| "असङ्क्रम गवेषणपरोऽध्यवासाय विशेषः होइ अवत्थू ए सभिमरूढे ।। ति ।। " [ अनु० समभिरूढः " । "वत्थूओ संकमणं, १५२] सूत्रम् । “सत्स्वर्थेष्वसङ्क्रमः इस धातु पाठ के अनुसार 'दह" धातु का अर्थ किसी वस्तु को भस्म कर देना है । जो वस्तु भस्म बन जाती है, वह अपने पूर्व पर्याय को छोड़कर भस्मपर्याय को प्राप्त करती है, यही उस वस्तु में विकार है । अतः "दह्यते" यह क्रियापद विकारार्थक कहा जाता है । उक्त वाक्य में "पलाल" पद नाम पद है, वह अविकारार्थक माना जाता है, क्योंकि, जबतक पलाल द्रव्य, पलाल पर्याय से युक्त रहता है तब तक अविकृत स्वरूप में ही रहता है । अविकृत स्वरूप पलाल का वाचक होने के कारण पलालरूप नाम अविकारार्थक माना जाता है । “पलाल' दह्यते" इस वाक्य में पलाल पद अविकारार्थक है और दह्यते पद विकारार्थक है, इसलिए दोनों पदों में एकार्थ बोधकत्वरूप सामानाधिकरण्य नहीं रहता है । प्रवृत्ति निमित्त के भेद रहने पर जो दो पद एक अर्थ के बोधक बनते हों, वे दो पद ही परस्पर समानाधिकरण माने जाते हैं । "पलालं दह्यते” इस वाक्य में पदों के अर्थ में सामानाधिकरण्य न होने के कारण व्यवहाराभिमत शाब्दबोध नहीं हो सकता है । कारण, पदों में एकार्थबोधकत्वरूप सामग्री का यहाँ विघटन हो जाता है, क्योंकि दोनों पद भिन्नार्थक हैं । इसतरह ऋजुसूत्र अर्थभेद मानता हो तो लिंग, वचन आदि के भेद रहने पर भी शब्दों का सामानाधिकरण्य नहीं होता है, इसलिए लिंगादि के भेद से अर्थभेद की कल्पना में ऋजुसूत्र अग्रह क्यों नहीं रखता है ? नाम घटादि जलाहरण आदि अर्थक्रियाकारी नहीं होते हैं इसलिए कुम्भ शब्द के वाच्यार्थ वे नहीं होते हैं, किन्तु कम्बुग्रीवादिमान् और जलाहरणादि अर्थक्रिया को करनेवाला जो घट वही कुम्भादि शब्द के वाच्य होते हैं, अतः केवल इस प्रकार का भावनिक्षेप ही साम्प्रतनय को अभिमत है । नाम, द्रव्य, स्थापना यह निक्षेपत्रय साम्प्रतनय को अभिमत नहीं है । (साम्प्रतनय समाप्त ) [ समभिरूढनय - सद्भूत अर्थों मे असंक्रम ] ( असंक्रम) घटपटादि अर्थों का, तथा घटशब्दवाच्य विशिष्ट चेष्टायुक्त अर्थ एवं कुत्सित पुरणरूप “कुम्भ' शब्द वाच्य अर्थ, तथा कौटिल्यविशिष्ट कुट शब्द वाच्य अर्थो का संक्रमण न हो इसतरह के गवेषण अर्थात् शोधन में तत्पर रहता हो, ऐसे अभिप्राय विशेष को "समभिरूढ" कहा जाता है । 'घटादिरूप जिस संज्ञा का उच्चारण होता है, उसी संज्ञा पर जो सम्यग् अभिरोहण करें' वह “समभिरूढ" शब्द का अर्थ है । आशय यह है कि जो शब्द उच्चरित होता है, वह शब्द उस के व्युत्पत्ति अर्थ में ही प्रमाणरूप होता है । इस के मत में व्युत्पत्ति निमित्त ही प्रवृत्ति निमित्त माना जाता है, इसलिए
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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