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________________ १७४ उपा. यशोविजयरचिते पलालं न दहत्यग्निर्भिद्यते न घटः क्वचित् ॥ नासंयतः प्रव्रजति, भव्योऽसिद्धो न सिध्यति ॥१॥" भेद है क्योंकि ध्वनि का भेद इन में रहता है, जैसा ध्वनि रहता है वैसा ही अर्थ साम्प्रत को इष्ट है। इसतरह भी ऋजुसूत्र की अपेक्षा से विशेषिततर अर्थ का ग्राही साम्प्रतनय सिद्ध होता है । यह विशेष भी भाष्यकार का सम्मत ही है। विशेषावश्यक भाष्य की निम्नलिखित गाथाओं का पर्यालोचन करने पर यह विशेष स्फुटतया अवगत होता है "वत्थमविसेसओ वा ज' सिन्नाभिन्नलिङ्गवयणंपि । इच्छइ रिउसुत्तनओ विसे सिययरतय सहो ॥२२३३॥ [वस्त्वविशेषतो वा यद भिन्न भिन्नलिङ्गवचनमपि । इच्छति ऋजसूत्रनयो विशेषिततर तत् शब्दः ॥ २२३३॥] धणिभेयाओ भेओत्थीपु लिङ्गभिहाणवच्चाणं । पड-कुभाणं जओ व तेणाभिन्नत्थमिठत ॥२२३४॥ [ध्वनिभेदात भेदः स्त्री-पुलिङ्गाभिधानवाच्यानाम् । पट-कुम्भानामिव यतस्तेनाभिन्नार्थ मिष्ट तत् ॥२२३४ ॥] भिन्न लिङ्गक शब्द हो या अभिन्न लिङ्गक शब्द हो, एवम्, भिन्न विभक्तिवाला शब्द हो या समान विभक्तिवाला शब्द हो, तो भी जिस वस्तु को “ऋजुसूत्रनय" अविशेषित मानता है, अर्थात् अभिन्न मानता है, उसी अर्थ को “साम्प्रत नय" भिन्नलिङ्गवाले अथवा भिन्नवचनवाले शब्द से बोध्य होने पर विशेषिततर अर्थात् भिन्नभिन्न मानता है । (२२३३) । जैसे "पट, शब्द और 'कुम्भ' शब्दरूप ध्वनि के भेद से अर्थ का भेद होता है, वैसे ही स्त्रीलिङ्ग, पुलिङ, नपुसकलिंग, 'तटः तटी, तटम' इन अभिधानों के भेद से अर्थो का भेद है क्योंकि यहाँ भी ध्वनि का भेद होता है, ऐसी साम्प्रत की मान्यता है, । परन्तु ऋजुसूत्र तो ध्वनि के भेद रहने पर भी "तटः, तटी, तटम," "गुरुः, गुरवः” इत्यादि स्थल में अर्थों का अभेद ही मानता है। (२२३४) । इन गाथाओं के अर्थ पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋजुसूत्र लिंगादि के भेद रहने पर भी अविशेषित अर्थग्राही है और साम्प्रतनय लिंगादि के भेद रहने पर विशेषिततर अर्थ का ग्राही होता है। (अर्थ खल्वेतस्य०) साम्प्रतनय का आशय यह है कि “पलालं न दहत्यग्नि'-तृण को अग्नि नहीं जलाता, घट कहीं नहीं फूटता, असंयत साधु नहीं बनता, असिद्ध भव्य सिद्ध नहीं होताइत्यादि प्राचीन आचार्य के वचनानुसार पलाल जब तक पलाल पर्याय को प्राप्त होता रहता है। तब तक पलाल ही रहता है, जब पलाल भस्मभाव को प्राप्त होता है, तब पलाल पर्याय से रहित होकर भस्मपर्याय युक्त बन जाता है, इसलिए जब तक पलालभाव उस में रहता है, तब तक उस को अग्नि दग्ध नहीं करता है, अतः “पलाल अग्निना दह्यते" यह जो "व्यवहारनय" के अनुसार प्रयोग होता है, वह असंगत है। कारण, बाध से शाब्दबोध नहीं होता है, क्योंकि उस वाक्य में “दह्यते” पद क्रियापद है । सभी क्रियापद विकारार्थक होते हैं, इसलिए यह क्रियापद भी दाहरूप विकारार्थक है । “दह-भस्मीकरणे"
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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