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________________ १४८ उपा. यशोविजयरचिते अस्यापि चत्वारो निक्षेपा अभिमताः । द्रव्य निक्षेप नेच्छत्ययमिति वादियदि आनुपूर्वीपद से आकांक्षा का परिग्रह किया जाय, तो भी शशशृङ्गपद जन्यबोध विषय में ही नास्तिपदार्थ के अन्वय की आकांक्षा मानी जायगी, इसलिए “शश. शृङ्गरूप" उद्देश्य की सिद्धि अवश्य माननी पडेगी । उस के बिना इस वाक्य से निराकांक्षबोध नहीं हो सकेगा, अतः उद्देश्यासिद्धि का आपादान करना युक्त नहीं होगा। विशिष्ट के अप्रसिद्ध होने पर भी वज्ञानिक सम्बन्ध विशेष को मानकर "शशशाङ्ग नास्ति" इस वाक्य में जैसे प्रामाण्य होता है उसीतरह “पीतः शङ्खो नास्ति" इस वाक्य में भी वैज्ञानिक सम्बन्ध को मानकर ही प्रामाण्य का उपपादन शक्य है, क्योंकि यहाँ भी पीतशंखरूप विशिष्ट अप्रसिद्ध है, तब उस में नास्तित्व का विधान नहीं हो सकेगा। वैज्ञानिक ध मानने पर नास्तित्व का स्वविषयक ज्ञानविषयता सम्बन्ध पीतशंखरूप विशिष्ट में रहता है इसीलिए अप्रसिद्ध पीतशंख में उक्त सम्बन्ध से नास्तित्व का विधान हो सकता है, तब यह वाक्य प्रमाण बनता है । यदि यह कहा जाय कि-"शशशृङ्ग' और "पीतशंख,” काल्पनिक है, इसलिए "नास्तित्व" भी उस में काल्पनिक ही होगा, तब "शशशृङ्ग नास्ति' “पीतशंखो नस्ति" इत्यादि वाक्यों से जन्यबोध प्रमाणरूप होवे, ऐसा सम्भव नहीं है, अतः प्रमाजनकत्वरूप प्रामाण्य इन वाक्यों में कैसे होगा ?"-परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि काल्पनिक अर्थ भी दूसरे को प्रतिबोध करने के लिए व्यवहार से प्रमाण माना जाता है, जैसे कोई दुधाहारी बालक दूध के अभाव में रुदन करता है तो उस की माता चावल को धोकर उस पानी को दूध कहकर बालक को पिला देती है। बालक उस को सच्चा दूध मानकर पी लेता है और शान्त बन जाता है । वही काल्पनिक दूधरूप अर्थ ही बालकप्रतिबोधार्थक व्यवहार से प्रमाण बन जाता है, उसीतरह शशशृङ्ग, पीत शंख आदि अर्थ काल्पनिक होने पर भी व्यावहारिक प्रामाण्य उस में माना जायगा अतः “शंशशृङ्ग नास्ति, पीतः शंखो नास्ति' इत्यादि वाक्यों का भी प्रामाण्य होने में कुछ बाध नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-"आप ने तार्किकों की रीति को अपनाकर असत् विशिष्ट में वैज्ञानिक सम्बन्धापेक्षया “शखशृङ्गं नास्ति' इत्यादि वाक्य के प्रामाण्य का उपपादन किया यह ठीक नहीं, क्योंकि अपनी रीति से आप प्रामाण्य का उपपादन नहीं कर सके। दूसरे की रीति तो आप की दृष्टि में प्रमाण ही नहीं है. तब कैसे उस रीति का स्वीकार आप के लिये संगत होगा ?" परन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्याद्वादतंत्र के निष्णात आचार्यों ने भी तत् तत् नय प्रतिपादित अर्थो में रुचि विशेष का उपपादन करने के लिये उन उन नयस्थलों में अन्य दार्शनिकों की रीति के परिग्रह को भी इष्ट माना है, अतः यदि हम तार्किक रीति का अनुसरण कर के 'शशशग नास्ति' इत्यादि वाक्यों के प्रामाण्य का उपपादन करे तो कोई क्षति नहीं है। [ चारों निक्षेप ऋजुसूत्रनय को भान्य है. ] से “नैगमादि नयों को नामादि निक्षेप चतुष्टय अभिमत है वैसे ऋजुसत्रनय को भी नामनिक्षेपादि चारों निक्षेप मान्य हैं । "वादि सिद्धसेन" के मत का यापी)
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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