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________________ नयरहस्ये ऋजुसूत्रनयः यदि यह कहा जाय कि-"शशशृङ्ग तो अप्रसिद्धवस्तु है, अप्रसिद्धवस्तु किसी विधेय का उद्देश्य नहीं बनती है, तब शशशृग में नास्तित्वरूप विधेय का विधान ही नहीं हो सकता है, इसलिए शशशृग नास्ति इसतरह के उत्तर का अभिधान युक्त कैसे माना जायगा ?" परन्तु, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि “शशशृंग' नास्ति" इस अभिधान में "शशपदोत्तर शृगपदत्वरूप आनुपूर्वी विशिष्ट शशशुगपद का उच्चारण है, इसलिए शशशृगं की उपस्थिति उक्त आनुपूर्वी विशिष्ट पद से हो जाती है, अतः शशगरूप उद्देश्य की सिद्धि अर्थात् ज्ञान, पद से ही हो जाता है, उस में नास्तित्व का विधान इस वाक्य से किया जाता है, जो वैज्ञानिक सम्बन्ध मानकर ही सम्भवित होता है । यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि "आनुपूर्वी" शब्द का आनुपूयं अर्थ होता है । वह आनुपूर्वी कई प्रकार की होती है । जैसे-वर्णानुपूर्वी, पदानुपूर्वी, वाक्यानुपूर्वी । वर्णों के क्रमिक उच्चारण को वर्णानुपूर्वी कहा जाता है, यह आनुपूर्वी पदों में रहा करती है, जैसे “घट” पद में घ, अ, द, अ इन चार वर्णों का उच्चारण क्रमशः होता है, अतः “घट' पद में घकारोत्तरत्व विशिष्ट जो अकार, तदोत्तरत्व विशिष्ट जो टकार, तदृत्तरत्व विशिष्ट अत्वरूप जो आनुपूर्वी, यह आनुपूर्वी “पटादि" पदों में नहीं है, किन्तु पकारोत्तरत्व घटित आनुपूर्वी उस में है, जो "घट"पद गत आनुपूर्वी से भिन्न है। जहाँ पदों का क्रमशः उच्चारण होता है, वहाँ पदानुपूर्वी शब्दप्रयोग किया जाता है । यह पदानुपूर्वी समस्त पदों में या वाक्य में रहती है । “शशशृङ्ग' शब्द में “शश" पद के बाद “शृङ्ग" पद का उच्चारण होता है, इसलिए निर्विभक्तिक शशपदोत्तरत्वविशिष्ट शृङ्गपदत्वरूप पदानुपूर्वी “शशशृङ्ग" इस समस्त पद में है । “शशे शृङ्ग नास्ति' इस वाक्य में भी पदानुपूर्वी रहती है, जो "सप्तम्यन्त” शशपदोत्तरत्व विशिष्ट प्रथमान्त "शृङ्गपद,” तदुत्तरत्व विशिष्ट जो "न" पद, तदुत्तरत्वविशिष्ट "अस्ति” पदत्वरूप है । “मृगो धावति, तं पश्य' इस वाक्य में "मृगो धावति" यह एक अवान्तरवाक्य है, "तं पश्य" यह दूसरा अवान्तर वाक्य है, इन दोनों वाक्यों का क्रमशः उच्चारण होता है, इसलिए "मृगो धावति” एतद्वाक्योत्तरत्व विशिष्ट "तं पश्य” इति वाक्यत्वरूप आनुपूर्वी "मृगो धावति, तं पश्य' इस महावाक्य में है । प्रकृत में "शशवृत्ति-अभावप्रतियोगि शृङ्गम्” इस वाक्य में शशवृत्ति-अभावप्रतियोगिपदोत्तरत्वविशिष्टशङ्गपदत्वरूप आनुपूर्वी है । अतः शृङ्गरूप उद्देश्य में शशवृत्ति-अभावप्रतियोगित्व का विधान किया जाय तो संगत होगा, परन्तु वह आनुपूर्वी “शशशृङ्ग नास्ति' या "शशशृङ्गमसत्” इन दोनों वाक्यों में नहीं है, किन्तु उस से भिन्न आनुपूर्वी है, जो "शशशृङ्ग नास्ति" इस वाक्य में "प्रथमान्त" शशशृङ्गगपदोत्तरत्वविशिष्ट जो "न" पद तदृत्तरत्वविशिष्ट "अस्ति' पदत्वरूप है और “शशशृङ्गमसत्” इस वाक्य में प्रथमान्त शशशृङ्ग पदोत्तरत्वविशिष्टअसत्पदत्वरूप है, इसलिए 'शशशृङ्ग पद से होनेवाले बोध का विषय शशशृङ्ग ही उद्देश्य होगा । यदि 'शशशृङ्ग' पद से बोध ही न होता, तब तो उद्देश्यासिद्धि मानी जाती, ऐसा तो नहीं है, किन्तु 'शशशृङ्ग' पद से बोध होता है, वह बोध ही उद्देश्यसिद्धिरूप है । वह बोध प्रमाणरूप नहीं है, यह अन्य बात है । अतः "शशशृंगं नास्ति,” या “शशशृगमसत्” इसतरह के अभिधान में या व्यवहार में उद्देश्य की असिद्धि बताना युक्त नहीं है।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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