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________________ ११० उपा. यशोविजयरचिते एतन्मतावष्टम्भेनैव "जीवो गुणपडिवन्नो णयस्स दव्व ट्ठियस्स सामइयं । सो चेव पज्जवणयट्ठियस्स जीवस्स एस गुणो" ॥ (आव. नि. ७९२) इत्यावश्यकगाथा कि द्रव्यं गुणो वा सामायिकमिति चिन्तायां द्रव्यार्थिकनयमते गुणप्रतिपन्नो जीवः सामायिकम् , पर्यायार्थिकनयमते तु जीवस्य गुण एव सामायिकमित्युत्तरम् , अत्र च द्रव्यपर्यायनययोः शुद्धद्रव्यपर्यायावेव विषयौ, तत्र पर्यायद्रव्ययोविभिन्नयोः कल्पितयोः ‘कुण्डलतापन्न स्वर्ण, पत्रस्य नीलते'त्यादाविव विशेषणतयाभिधानं तु न स्व विषयव्यावातायेत्यभिप्रायेण महता प्रबन्धेन-भाष्यकृता व्याख्याता । [ जीवोगुणपडिवन्नो० गाथा के व्याख्यान से अभिप्रायस्पष्टता ] (एतन्मताव) द्रव्यार्थिकनय स्वतन्त्रतया नामादि निक्षेपत्रय को ही मानता है, इसी मत का अवलम्बन करके भाष्यकारने "जीवो गुणपडिवन्नो' इत्यादि आवश्यक गाथा का विस्तृतरूप से व्याख्यान किया है। उस व्याख्यान में सामायिक द्रव्य है? अथवा सामायिक गुण है ? इस तरह के प्रश्न का उदभावन करके द्रव्यार्थिकनय के मत में सम्यक्त्वादि गुणों से युक्त जीवद्रव्य सामायिक है, पर्यायार्थिकनय के मत में तो जीव का सम्यक्त्वादि गुण ही सामायिक है-ऐसा उत्तर दिया गया है इस मत में द्रव्याथिकनय का विषय शुद्धद्रव्य ही माना गया है । तथा पर्यायार्थिकनय का विषय शुद्धपर्याय ही माना गया है । इस से यह सिद्ध होता है कि द्रव्याथिकनय का विषय पर्याय नहीं होता, क्योंकि इस नय की दृष्टि से पर्याय वास्तविक नहीं है। इसलिए नामनिक्षेपत्रय ही द्रव्यार्थिकनय का विषय सिद्ध होता है, पर्यायरूप भावनिक्षेप इस का विषय नहीं होता। तथा पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से द्रव्य वास्तविक नहीं है, इसलिए केवल भावनिक्षेप इस का विषय होता है। यहाँ पर शंका उठती है कि जब द्रव्यार्थिकनय का विषय शुद्ध द्रव्य ही होता है, तब सम्यक्त्वादि गुणों से युक्त जीव सामायिक है। इस व्याख्यान में गुण का द्रव्य में विशेषणरूप से कथन जो भाव्यकार ने किया है उस से तो द्रव्यार्थिकनय के विषय का विरोध होता है क्योंकि विशेषणरूप से गुणरूप पर्याय भी द्रव्यार्थिकजय का विषय सिद्ध हो जाता है। तथा पर्यायार्थिकनय का विषय जब शुद्ध पर्याय ही है, तब 'जीव का गुण पर्यायाथिकनय के मत में सामायिक है' इस व्याख्यान में गुणविशेषणतया जीवरूप द्रव्य का कथन जो भाष्यकार ने किया है, उस से पर्यायाथिकनय के विषय का विरोध उपस्थित होता है क्योंकि उस का विषय शुद्धपर्यायमात्र है, उस की दृष्टि से द्रव्य तो है ही नहीं। इस आशंका का समाधान यह है कि "कुण्डलतापन्नं सुवर्ण' इस वाक्य मे जैसे सुवर्णरूप द्रव्य में विशेषण रूप से कुण्डलत्वरूप पर्याय भासित होता है, वह कुण्डलत्वरूप पर्याय सुवर्णरूप द्रव्य से भिन्न और कल्पित है, वैसे ही द्रव्यार्थिकनय के मत में वास्त. विक विषयरूप से तो शुद्ध द्रव्य ही भासित होता है, उस द्रव्य में गुणरूप पर्याय विशेषणतया भासित होने पर भी वह शुद्ध द्रव्य से भिन्न और कल्पित है। कल्पित पर्याय
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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