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________________ ८४ उपा. यशोविजयरचिते जिस मुखविशेष के दर्शन से होता है, उसी मुख विशेष को लोक चन्द्र समान कहते हैं। इसी रीति से मृत्तिका के वे ही परिणाम समान माने जाते हैं जिन परिणामों में कोई समान धर्म रहता हो । परिणामों में भी समानता सादृश्यरूप ही है। वह सारश्य प्रकृत में जिस समान धर्म से माना जाता है वह समान धर्म या तो एक सामान्य त्व अथवा एकजातीयत्व ही होगा। इन दोनों पक्ष में समानत्व के गर्भ में सामान्य का प्रवेश होता है, क्योंकि सामान्य और एक जातीय ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं । तब तो समानपरिणाम रूप सामान्य के ज्ञान में उस में विशेषणीभूत सामान्य का ज्ञान अपेक्षित होगा, क्योंकि विशिष्टबुद्धि में विशेषण का ज्ञान कारण माना जाता है। इसलिए समान परिणामरूप सामान्य ज्ञान में विशेषणीभूत सामान्य का ज्ञान कारण होगा । यदि विशेषणीभूत सामान्य का ज्ञान न रहेगा, तो समानपरिणामरूप सामान्य का भी ज्ञान नहीं हो सकेगा क्योंकि कारण के अभाव में कार्य का न होना तो सर्ववादी को मान्य है। विशेषणीभूत सामान्य का ज्ञान यहाँ कारण है, उस के अभाव में समानपरिणामरूप सामान्य का ज्ञान जो विशिष्ट बुद्धि रूप है और विशेषणज्ञान का कार्य भी है, सो कसे होगा ? अतः समानपरिणामरूप सामान्य में दुर्ग्रहत्व का प्रसंग आता है। ___ यदि यहाँ बचाव किया जाय कि-'समान परिणामरूप सामान्य में दुर्घहत्व का प्रसंग तो तभी आ सकता है, यदि विशेषणीभूत सामान्य का ज्ञान किसी भी तरह न हो सके । मृत्तिका के समान परिणामों में एक सामान्यवत्त्व अथवा एकजातीयत्वरूप समान धर्म का ज्ञान तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सरलतया सम्भव है । तब तो विशेषण ज्ञान प्रत्यक्षादि द्वारा हो जायगा और समान परिणामरूप सामान्य भी सुग्रह ही बनेगा, उस में दुर्ग्रहत्व का प्रसंग देना योग्य नहीं है।'-तो यह बचाव ठीक नहीं है, क्योंकि एक सामान्यवत्त्व और एकजातीयत्व इन दोनों साधारण धर्मो का पर्यवसान सामान्य स्वरूप में ही होता है । इसलिए सामान्य के ज्ञान में सामान्य ज्ञान की अपेक्षा होने से आत्माश्रय दोष उपस्थित होता है। एवं समानपरिणामरूप सामान्य के ज्ञान में विशेषणीभूत समानत्वरूप सादृश्यज्ञान की अपेक्षा होती है और समानत्वरूप सादृश्यज्ञान में समानत्व के गर्भ में प्रविष्ट सामान्यज्ञान की अपेक्षा होती है क्योंकि समानत्वगर्भप्रविष्ट सामान्य को भी आप अतिरिक्त न मानकर समानपरिणामरूप ही माने गे, इस रीति से परस्पराश्रय दोष का प्रसंग आता है । इस हेतु से विशेषणीभूत सामान्य ही दुर्ग्रह हो जाता है, जो विशिष्ट ज्ञान के प्रति कारण माना जाता है। तब समानपरिणामरूप सामान्य में दुर्ग्रहत्व अनिवार्य है। [सामान्य की दुर्घहता का निराकरण-समाधान ] वैशेषिकों के इस आक्षेप का निराकरण "अत एव” पद से उपाध्यायजी सूचित करते हैं-इस का यह आशय है कि हम व्यक्ति में जो समानपरिणामरूप सामान्य है वह अनुगत प्रतीति जनकतारूप ही है। अनुगतबुद्धि जनकता स्वभाव समानपरिणाम में सामान्य का प्रवेश विशेषणतया नहीं होता है। अतः समानपरिणामरूप सामान्य ज्ञान में सामान्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं रहती है । इसलिए आत्माश्रय और परस्पराश्रय दोष का भी प्रसंग नहीं
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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