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________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः शब्द पाया जाता है - इस का सम्बन्ध इन शिष्यों के विरह से जोडा गया है। इसी से उन्हें विरहांक अथवा भवविरहसूरि ये उपपद मिले हैं। हरिभद्र के समय के बारे में किसी समय बहुत विवाद था । परम्परागत गाथाओं आदि में उन की मृत्यु का वर्ष संवत् ५८५ = सन ५२८ बताया गया था। दूसरी ओर उपमितिभवप्रपंचा कथा के कर्ता सिद्धर्षि ने ( जिन का ज्ञात समय संवत् ९६२ है ) उन्हें गुरु माना है। इस विवाद का अन्तिम समाधान मुनि जिन विजय के संशोधन से हुआ। हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों में सातवीं सदी के बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति के मतो की आलोचना की है तथा सन ६७६ में समाप्त हुई नन्दीसूत्र की चूर्णि का अपनी नन्दीसूत्रटीका में उपयोग किया है अतः सन ७०० यह उन के समय की पूर्वसीमा है । दूसरी ओर सन ७७८ में समाप्त हुई कुवलयमाला कथा के कर्ता उद्योतन सूरि उन के शिष्य थे अतः यही उन के समय की उत्तरसीमा है - सन ७०० से ७८० यह उन का कार्यकाल निश्चित होता है । सिद्धर्षिने परम्परा से उन्हें गुरु माना है - साक्षात् गुरु नही माना है। ___ हरिभद्र के ग्रन्थों की संख्या बहुत अधिक है । उन के तर्कप्रधान ग्रन्थ १३ हैं - इन में दस स्वतंत्र तथा तीन टीकात्मक हैं। इन का क्रमशः परिचय इस प्रकार है । अनेकान्तजयपताका- इस में ६ अधिकार हैं तथा इस का विस्तार ३७५० श्लोकों जितना है । वस्तुतत्व में नित्यत्व, अनित्यत्व, सत्त्व, असत्त्व, अनेकत्व आदि परस्पर विरुद्ध गुणधर्म कैसे रहते हैं यह आचार्य ने इस ग्रन्थ में सिद्ध किया है। इस के पांचवें अध्याय में योगाचार बौद्धों के मत का विस्तार से खण्डन है तथा छठवें अध्याय में मोक्ष के स्वरूप का विस्तृत विचार किया है । इस ग्रन्थ पर आचार्य ने स्वयं भावार्थमात्रावेदनी तथा उद्योतदीपिका नामक दो विवरण लिखे हैं जिन १) जिनविजय का यह लेख जैन साहित्य संशोधक के प्रथम खण्ड में प्रकाशित हुआ है । २) सूचियों आदि से ८७ से अधिक नाम प्राप्त होते हैं । श्री. कापडिया ने अनेकान्तजयपताका की प्रस्तावना में ५५ ग्रन्थों का परिचय दिया है।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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