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________________ ३२६ विश्वतत्त्वप्रकाशः . [पृ. ७९ . पृष्ठ ७९-मीमांसा, न्याय आदि दर्शनों में स्मरण का अन्तर्भाव प्रमाण में नही किया जाता; स्मरण यद्यपि यथार्थ ज्ञान होता है तथापि वह किसी नये (अपूर्व) पदार्थ का ज्ञान नहीं कराता अतः ये दर्शन उसे प्रमाण में अन्तर्भूत नहीं करते । अकलंकादि जैन आचार्यों ने स्मरण को भी परोक्ष प्रमाण का एक स्वतन्त्र भेद मान कर प्रमाण-ज्ञान में अन्तर्भूत किया है। क्यों कि उन की दृष्टि से प्रत्येक यथार्थ ज्ञान प्रमाण है-फिर वह अपूर्व पदार्थ का ज्ञान हो या पूर्वानुभूत पदार्थ का। ___ पृष्ठ ८०-शालिका यह शालिकनाथकृत प्रकरणपंचिका का संक्षिप्त नाम है। वेदप्रामाण्य की आयुर्वेद के प्रामाण्य से तुलना न्यायसूत्र में भी मिलती है किन्तु वहां दोनों का प्रामाण्य आप्त (यथार्थ उपदेशक) पर अवलम्बित बताया है । वेद बहुजनसंमत हैं इस के विरोध में लेखक ने तुरष्कशास्त्र को भी बहुजनसंमत कहा है। यहां तुरष्कशास्त्र का तात्पर्य कुरान आदि मुस्लिम ग्रन्थों से ही प्रतीत होता है । इन को बहुसंमत कहना तेरहवीं सदी के उत्तरार्ध में या उस के बाद ही संभव है। इस विषयका विवरण प्रस्तावना में ग्रन्थकर्ता के समयविचार में दिया है। वेदों के महाजनपरिगृहीतत्व का वर्णन वाचस्पति ने न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका में किया है। पृष्ठ ८१- ध्रुवा द्यौः इत्यादि मन्त्र राज्याभिषेक के अवसर पर राजा के प्रति शुभ कामना प्रकट करने के लिए प्रयुक्त होते थे। पृष्ठ ८२-सर्व वै खल्विदं ब्रह्म इत्यादि श्लोक इस समग्र रूप में उपनिषंदों में प्राप्त नही होता। इस का पहला अंश छान्दोग्य उपनिषद में (३-१४-१) तथा दूसरा अंश बृहदारण्यक उपनिषद में (४-३.१४) मिलता है। पृष्ठ ८६-वेद अपौरुषेय है अतः वे प्रमाण हैं इस युक्ति के उत्तर में लेखक ने अबतक तथा आगे भी कहा है कि वेद पौरुषेय हैं,अपौरुषेय नही हैं। पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि में इस का दूसरे प्रकार से भी उत्तर दिया है - जो अपौरुषेय है वह प्रमाण ही होता है ऐसा कोई नियम नही है, चोरी का उपदेश भी अपौरुषेय है किन्तु वह प्रमाण नही है- ऐसा उन का कथन है । १) प्रमाणसंग्रह श्लो.१० प्रमाणमर्थसंवादात् प्रत्यक्षान्वयिनी स्मृतिः। २) मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यम् आप्तप्रामाण्यात् । २।१।६८ ३) पृष्ठ ४३२ न चान्य आगमो लोकयात्रामुद्वहन् महाजनपरिगृहीतः ईश्वरप्रणीततया स्मर्यमाणो दृश्यते। ४) अध्याय १ सूत्र २० न चापौरुषेयत्वं प्रामाण्यकारणं, चौर्याद्युपदेशस्य प्रामाण्यप्रसंगात् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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