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________________ २८८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [८६ जननस्वभावत्वं स्वकार्यजननं प्रत्यन्यानपेक्षत्वमेवोभयवादिसंप्रतिपन्नत्वेन विवक्षितम् , न तु विनाशस्वभावत्वं विनाशं प्रत्यन्यानपेक्षत्वं वा। तत्र द्वयोर्विप्रतिपत्तिसद्भावात् । तस्माद् भावानां विनाशस्वभावत्वासिद्धेन क्षणिकत्वसिद्धिः वैभाषिकस्य । यदपि क्षणिकत्वसमर्थनार्थ सौत्रान्तिकः प्रत्यपीपदत्-यत् सत् तत् क्षणिकं यथा प्रदीपादिः सन्तश्चामी व्योमादय इति तदयुक्तम् । हेतोः स्वरूपासिद्धत्वात् । कुतः क्षणिकपदार्थेषु सत्त्वस्यानुपपत्तेः तत् कथमिति चेत् यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसदिति स्वयमेवाभिधानात् । क्षणिकेषु ऋमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्वासंभवात् । तथा हि। क्षणिकस्य तावत् क्रमेणार्थक्रियाकारित्वं नोपपनीपद्यते। देशकालक्रमयोस्तत्रासंभवात् । कुतः यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैव सः। न देशकालयोाप्तिर्भावानामिह विद्यते॥ इति स्वयमेवाभिधानात् । तथा क्षणिकस्य योगपद्येनापि अर्थक्रिया न जाघटीति । एकस्मिन् समये उत्तरोत्तरानन्तसमयेषु क्रियमाणार्थक्रियाणां कथन तो ठीक है किन्तु इस से विनाश भी स्वभावतः होता है यह सिद्ध नही होता । कार्य उत्पन्न करना और विनाश होना ये अलग बातें हैं अतः एक से दूसरे की सिद्धि नही होती । जो सत् है वह क्षणिक होता है यह सौत्रान्तिकों का कथन भी उचित नहीं है । बौद्धों ने उन्हीं को सत् माना है जो अर्थक्रिया कर सकते हैं, क्षणिक पदार्थ अर्थक्रिया नहीं कर सकते, अतः क्षणिक पदार्थों को सत् कहना योग्य नहीं। क्षणिक पदार्थों में अर्थक्रिया क्रम से और एकसाथ-दोनों प्रकारों से सम्भव नही है । जो पदार्थ क्षणिक है उन में देश अथवा काल का कोई क्रम नहीं हो सकता अतः वे क्रम से अर्थक्रिया नही कर सकते । जैसा कि बौद्धों ने ही कहा है-' जो जहां और जिस समय है वह वहीं और उसी समय होता है-पदार्थ देश या काल में व्यापक नहीं होते ।' कोई क्षणिक पदार्थ एकसाथ ( एक ही क्षण में ) भी सब अर्थक्रिया नही कर सकता । उत्तरवर्ती अनन्त समयों की अर्थ १ विनाश-स्वभावत्वविनाशं प्रत्यन्यानपेक्षत्वयोः। २ पदार्थाः सर्वे क्षणिकाः सत्त्वात् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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