SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ विश्वतत्त्वप्रकाशः [६७ [६७. मनःस्वरूपविचारे इन्द्रियस्वरूपबिचारः।] - द्रव्येष्वपि अणु मनः सक्रियं चेति मनोद्रव्यस्याणुमात्रत्वं स्पर्शादिरहितत्वं च परैरनुमन्यते । तदयुक्तं मनसस्तदसंभवात् । तथा हि। मनोद्रव्यम् अणुपरिमाणं न भवति ज्ञानोत्पत्ती कारणत्वात् चक्षुर्वत्, शानासमवाय्याश्रयत्वात् आत्मवत् । तथा मनोद्रव्यं स्पादिमद् भवति असर्वगतद्रव्यत्वात् पटवत्, शानकरणत्वात् श्रोत्रवदिति च । ननु नाभसं श्रोत्रमिति श्रोत्रस्य नाभसत्वेन स्पर्शादिमत्त्वाभावात् साध्यविकलो दृष्टान्त इति चेन्न। श्रोत्रस्य नाभसत्वासंभवात्। तथा हि। श्रोत्रं नामसं न भवति बाह्येन्द्रियत्वात् चक्षुर्वत् ज्ञानोत्पत्ती करणत्वात् मनोवत्। नमोऽपीन्द्रिय प्रकृति न भवति विभुत्वात् अनणुत्वे सति नित्यत्वात् तथा निरवयवद्रव्यत्वात् , तथैवाखण्डत्वात् , द्रव्यानारम्भकद्रव्यत्वात् कालवदिति श्रोत्रस्य नाभसत्वासिद्धेः। तथा च नाभसं श्रोत्रं रसादीनां मध्ये शब्दस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् शंखादीनां शुषिरवदित्याद्यनुमानं निरस्तम् । कुतः भेरीकोणसंयोमादिना हेतो ६७. इन्द्रियस्वरूपका विचार-वैशेषिक मत में मन को अणु आकार का, स्पर्श आदि से रहित तथा सक्रिय माना है। किन्तु यह मत योग्य नही । मन चक्षु आदि के समान ज्ञान का साधन है, तथा आत्मा के समान ज्ञान का असमवायी आश्रय है अतः वह अणु आकार का नही हो सकता। मन वस्त्र आदि के समान असर्वगत द्रव्य है तथा कान के समान ज्ञान का साधन है अतः वह स्पर्शरहित नही है । न्याय मत में कर्ण-इन्द्रिय को आकाश निर्मित अतएव स्पर्शरहित माना है। किन्तु यह मत उचित नही । कर्णइन्द्रिय भी चक्षु के समान एक इन्द्रिय है तथा ज्ञान का साधन है अतः वह आकाशनिर्मित नही हो सकता । इसी तरह आकाश व्यापक है, परमाणु से भिन्न है, नित्य निरवयव द्रव्य है, अखण्ड है, किसी द्रव्य का आरम्भ उस से नही होता, अतः कर्णेन्द्रिय आकाश से निर्मित हो यह संभव नही। रस, रूप आदि गुणों में सिर्फ शब्द की अभिव्यक्ति कान द्वारा होती है अतः शंखके छिद्रके समान कान को आकाशनिर्मित मानना गलत है १ नैयायिकादिभिः । २ नभसः सबन्धि । ३ छिद्रवत् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy