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________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः इस प्रामाण्य का ज्ञान परिचित वस्तु के विषय में स्वतः होता है तथा अपरिचित वस्तु के विषय में अन्य साधनों से – परतः होता है। इसी सन्दर्भ में ज्ञान अपने आप को जान सकता है - स्वसंवेद्य है यह भी स्पष्ट किया है। भ्रान्तिस्वरूप-प्रामाण्य के सम्बन्ध में अप्रमाण ज्ञान का - भ्रान्ति का स्वरूप क्या है यह विस्तार से बतलाया है(पृ. ११४-१३६)। माध्यमिक बौद्ध सभी पदार्थों के ज्ञान को भ्रम कहते हैं – संसार में कोई पदार्थ नही हैं, सब शन्य है यह उन का मत है। किन्तु सर्वजनप्रसिद्ध प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि प्रमाणों का इस प्रकार अभाव बतलाना उचित नही । यदि प्रमाण विद्यमान हैं तो उन के प्रमेय – बाह्य पदार्थों काभी अस्तित्व अवश्य मानना होगा। इसी प्रकार से योगाचार बौद्धोंका विज्ञानवाद - जगत में केवल ज्ञान विद्यमान है, बाकी सब पदार्थ ज्ञान के ही आकार हैं - भी गलत है क्यों कि इस में भी प्रमाण तथा प्रमेय के भेद को भुला दिया गया है । प्राभाकर मीमांसक भ्रम का अस्तित्व ही स्वीकार नही करते - उन के मत में सभी ज्ञान प्रमाण ही होते हैं । यह मत भी प्रमाणविरुद्ध है क्यों कि भ्रम का अस्तित्व प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है । यदि भ्रम का अस्तित्व नही होता तो जगत के रूप से विषय में परस्पर विरोधी मत प्रचलित ही नही होते । मायावाद-जगत के स्वरूप को भ्रमजन्य माननेवाले प्रमुख मत -वेदान्त दर्शनका विचार लेखक ने विस्तार से किया है (पृ. १३७ - १९२ )। वेदान्तियों का कथन है कि प्रपंच - संसारकी उत्पत्ति अज्ञान से होती है तथा ज्ञान से उस की निवत्ति होती है। किन्तु अज्ञान जैसे निषेधात्मक-अभावरूप तत्त्व से जगत जैसा भावरूप तत्त्व उत्पन्न नही हो सकता। इसी प्रकार ज्ञान वस्तु ( जगत) को जान सकता है, उस का नाश नही कर सकता । वैदिक वाक्यों में अनेक जगह प्रपंच को ब्रह्मस्वरूप कहा है अतः ब्रह्म यदि सत्य हो तो प्रपंच भी सत्य होगा । प्रपंच की सत्यता में बाधक कोई प्रमाण नही हैं। ब्रह्मसाक्षात्कार से प्रपंच बाधित नही होता क्यों कि व्यास, पराशर आदि ऋषियों को साक्षात्कार
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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