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________________ प्रस्तावना १३ अतिरिक्त एक आक्षेप यह भी है कि नैयायिक मत में मान्य ईश्वर-ब्रह्मा विष्णु अथवा शिव - राग, द्वेष आदि दोषों से युक्त हैं तथा संसारी हैं अतः वे सर्वज्ञ या मुक्त नही हो सकते । वेदप्रामाण्य-मीमांसक सर्वज्ञप्रणीत आगम तो नही मानते किन्तु अनादि-अपौरुषेय वेद को प्रमाणभत आगम मानते हैं। इन का चार्वाकों ने खण्डन किया है उस से भी लेखक सहमत हैं (पृ.७२-१०१) वेद के कर्ता अष्टक आदि ऋषि हैं ऐसा बौद्धादि दर्शनों के अनुयायी मानते हैं अतः वेदों को अपौरुषेय कहना अथवा वेदों के कर्ता किसी को ज्ञात नही हैं अतः वेद अकर्तक हैं यह कहना गलत है। बौद्ध धर्मग्रन्थ-त्रिपिटक-का कोई एक कर्ता ज्ञात नही है किन्तु इस से वे अकर्तृक नही हो जाते । वेद की अध्ययनपरम्परा अनादि है यह कथन भी ठीक नही क्यों कि काण्व, याज्ञवल्क्य आदि शाखाओं के नामों से उन परम्पराओं का प्रारम्भ उन ऋषियों ने किया था यह स्पष्ट होता है । वेदकर्ता के सूचक वाक्य वैदिक ग्रन्थों में ही उपलब्ध होते हैं। वेद बहुजनसम्मत है अतः प्रमाण हैं यह कथन भी ठीक नही । यद्यपि बहुतसे लोग वेद को प्रमाण मानते हैं तथापि वेद के अर्थ के बारे में उन में बहुत मतभेद है अतः वेद के किस अर्थ को प्रमाण मानें इस का निर्णय नही होता । दूसरे, वेद के समान तुरुष्कों के शास्त्र भी बहुसम्मत हैं किन्तु इस से वे प्रमाण नही हो जाते । वेद सदोष हैं, वाक्यबद्ध हैं, उन में राजा तथा ऋषियों के उल्ले व हैं, तथा उन का वर्णन भी प्रमाण बाधित, व हिंसा जैसे पापकार्यों का समर्थक है अतः वेद पुरुषकृत एवं अप्रमाण सिद्ध होते हैं। प्रामाण्यवाद-वेद स्वतः प्रमाण हैं इस मीमांसक मत के सिलसिले में ज्ञान स्वतः प्रमाण होते हैं या परतः प्रमाण होते हैं इस का विचार लेखक ने किया है (पृ. १०१-११३ ) । ज्ञान यदि वस्तुतत्त्व ( सत्य स्वरूप ) के अनुसार है तो वह प्रमाण होता है तथा वस्तु के स्वरूप के विरुद्ध है तो अप्रमाण होता है अतः ज्ञान का प्रामाण्य वस्तुस्वरूप पर आधारित है - परतः निश्चित होता है, स्वतः नही।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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