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________________ १९६ विश्वतत्त्वप्रकाशः [५७ कार्यद्रव्यत्वात् अनणुत्वे सत्यवयवैरनाख्धद्रव्यत्वात् आकाशवदित्याधनुमानानि निरस्तानि वेदितव्यानि । निर्दुष्टमानसप्रत्यक्षेण स्वात्मनः सर्वगतत्वाभावस्य निश्चितत्वेन तेषां हेतूनां कालात्ययापदिष्टत्वाविशेषात् । [ ५७. सर्वगतत्वे संसारायुक्तता । ] अथ धर्माधर्मौ स्वाश्रयसंयुक्तक्रियाहेतू' एकद्रव्यसमवेतक्रिया हेतुगुणत्वात् प्रयत्नवदिति चेन्न । हेतोः प्रतिवाद्यसिद्धत्वात् । कथम् । जैनैर्धमधर्मयोद्रव्यत्व समर्थनात् । 1 अपि च । आत्मनः सर्वगतत्वे जन्ममरणव्यवस्था स्वर्गनरकादिगमन व्यवस्था च नोपपनीपद्यते । तथा हि । उत्पद्यमानशरीरे प्राक् तत्राविद्यमानस्यात्मनः प्रवेशो जन्म, आयुःपरिक्षयात् प्रागुपात्तशरीरादात्मनो 1 मानना प्रतीतिविरुद्ध है । इसी लिए आत्मा नित्य द्रव्य है, निरवयव है, अखण्ड है, द्रव्यों का आरम्भ न करनेवाला द्रव्य है, कारणरहित है, कार्यरहित है, अत्रयवों से आरब्ध नही है आदि कारण भी आत्मा को सर्वगत सिद्ध नही कर सकते । ५७. सर्वगत आत्मा का संसरण असंभव है— धर्म और अधर्म ऐसे गुण हैं जो एक द्रव्य में समवेत क्रिया के हेतु हैं अतः प्रयत्न के समान वे आत्मा से संयुक्त शरीर की क्रिया के हेतु हैं (- अतः जहां धर्म, अधर्म हैं वहां आत्मा भी होना चाहिए, धर्म, अधर्म सभी जगह हैं अतः आत्मा भी सर्वगत है ) यह कथन भी उचित नही। यहां धर्म और अधर्म को गुण माना है किन्तु हमारे मत से वे द्रव्य हैं । अतः इस अनुमान का आधार ही गलत है । 1 आत्मा को सर्वगत मानने से संसार का सभी वर्णन अयुक्त सिद्ध होता है । एक शरीर में आत्मा प्रवेश करता है यही जन्म है, उस शरीर को छोडकर आत्मा बाहर जाता है यही मरण है, छोडे हुए शरीर १ धर्माधर्मयोराश्रयः आत्मा तेन सह संयुक्तं शरीरं तस्य क्रिया तां प्रति हेतू । नैयायिकः धर्माधर्मयोः गुणत्वं प्रतिपादयति कुतः द्रव्यगुणयोः संयोगप्रतिपादनार्थ, जैनस्तु द्रव्यत्वं प्रतिपादयति अतः संयोगो न भवति । २ एकं द्रव्यं शरीरं तत्र समवेता क्रिया तस्यां हेतुरात्मा ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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