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________________ १८२ विश्वतत्त्वप्रकाशः [५३दुःखादिकं भुञ्जानस्तिष्ठति सकलशरीरेषु एक एव महेश्वरः सुखदुःखादि. कमभुञ्जानः केवलं साक्षित्वेनान्तर्यामीति व्यपदेशभाक् प्रकाशमानस्तिष्ठति इत्येकस्यैव परब्रह्मणः उपाधयो भेदकाः। कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः। कार्यकारणतां हत्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते ॥ ___(शुकरहस्योपनिषत् ३-१२) इत्यविद्ययैव प्रमातृभेद इति । तदयुक्तम्। अविद्यायाः प्रमातृभेदकत्वानु. पपत्तेः । कुतःमायाव्यतिरिक्ताया अविद्याया अभावात्। अथ ज्ञानपुण्यपापवासनारूपसंस्काराविशिष्टायाः मायाया एव अविद्यारूपत्वं तया कृतः प्रमातृभेद इति चेत् तर्हि अविद्यामेदः कुतः स्यात् । अथ प्रमातृभेदादविद्याभेद इति चेन्न । इतरेतराश्रयप्रसंगात् । कुतः। यावत् प्रमातृभेदो न जाघटीति तावदविद्याभेदोऽपि नोपपनीपद्यते, यावदविद्याभेदो नोपपद्यते तावत् प्रमातृभेदो न जाघटीतीति । अथ शानपुण्यपापवासनारूपसंस्कारहै -- इन में जीत्र तो प्रत्येक शरीर में एकएक होता है तथा सुखदुखःका अनुभव करता है; किन्तु महेश्वर सब शरीरों में एक ही है तथा वह सुखदुःख का अनुभव नही करता – सिर्फ अन्तर्यामी साक्षी होता है । इस प्रकार एक ही परब्रह्म के दो उपाधियों से दो रूप होते हैं। जैसे कि कहा है - • कार्यरूप उपाधि से युक्त चैतन्य जीव है तथा कारणरूप उपाधि से युक्त चैतन्य ईश्वर है, कार्य और कारण के दूर होने पर पूर्ण चैतन्य ही अवशिष्ट रहता है।' तात्पर्य - प्रमाताओं में भेद अविद्यामूल है। वेदान्त मत का यह सब कथन उचित नही । माया और अविद्या में कोई अन्तर नही है अतः अविद्या से प्रमाताओं में भेद होता है यह कथन ठीक नही । पुण्य, पाप के वासनारूप संस्कार से विशिष्ट माया ही अविद्या है अतः उसके द्वारा प्रमाताओं में भेद होता है यह कथन भी पर्याप्त नही । इस पर प्रश्न होता है कि अविद्या में भेद कैसे हुआ ? संस्कार के भेद से अविद्या में भेद होता है यह कहने पर प्रश्न रहता है कि संस्कार में भेद कैसे हुआ? प्रमाताओं के भेद से संस्कार में भेद १कार्यलक्षण उपाधिः कार्योपाधिः कारणलक्षण उपाधिः कारणोपाधिः ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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