SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ विश्वतत्त्वप्रकाशः [४२भूद्रवादिकं तद्देशगतैरुपलभ्येत। न चैवमुपलभ्यते। तस्मात् सांख्यपरिकल्पितप्रसिद्धार्थख्यातिपक्षोऽप्ययुक्त एव। ननु तत्र प्रतीयमानं जलादिकं सद्रूपं न भवति आत्मवदबाध्यत्वप्रसंगात् , असद्रूपं न भवति खरविषाणवदप्रतिभासप्रसंगात्, किंतु तत्र तद्लौकिकं जलोदिकं प्रतिभासते। किमिदमलौकिकत्वमिति चेत् स्नानपानावगाहनाद्यर्थक्रियाऽयोग्यत्वमित्यवोचाम इति भास्करीयवेदान्ती प्रत्यवोचत् । सोऽप्यतत्त्वज्ञानी। तस्य तत्र प्रतीयमानं जलादिकं प्रवृत्तेः पूर्व लौकिकत्वेन प्रतीयते अलौकिकत्वेन वा । प्रथमपक्षे अलौकिकं जलादिकं लौकिकत्वेन प्रतिभासीति अन्यथाख्यातिरेव स्यात्। द्वितीयपक्षे प्रवृत्तिरेव न स्यात् । अलौकिकत्वेन स्नानपानावगाहनाद्यर्थक्रियायाः अयोग्यत्वेन प्रतिभासमानत्वात्। तस्माद् भास्करीयवेदान्तिपरिकल्पितालौकिकार्थख्यातिरपि न युक्तिमध्यास्ते। नही रहते इसी से स्पष्ट है कि वहां जल का अस्तित्व ही नही था। अतः सांख्यों का प्रसिद्धार्थख्यातिपक्ष भी अनुचित है। ____ भास्करीय वेदान्तियों के अनुसार यह मृगजल अलौकिक है - यह सत् रूप नही क्यों कि यह सत् होता तो आत्मा के समान ही अबाध्य रहता; यह असत् रूप भी नही क्यों कि यह असत् होता तो गधे के सींग के समान इसका ज्ञान असम्भव होता। अतः इस मृगजल को सत् और असत् दोनों से भिन्न अलौकिक मानना चाहिये। अलौकिक कहने का तात्पर्य यह है कि इस जल से स्नान, पीना आदि कोई अर्थक्रिया नही हो सकती। इस मत का निरसन इस प्रकार है - यह जल लैाकिक रूप से प्रतीत होता है या अलौकिक रूप से? यह लौकिक रूप से प्रतीत होता हो तो उसे अलौकिक नही कह सकेंगे - अलौकिक हो कर भी वह लौकिक रूप में प्रतीत होता है यह अन्यथाख्याति ही होगी। यदि अलौकिक रूप में प्रतीत होता है तो उस से कोई प्रवृत्ति नही होगी - इस जल से स्नान नही किया जा सकता यह ज्ञात हो तो समीप पहुंचने आदि की इच्छा ही नही होगी। अतः दोनों प्रकार से इस मृगजल का अलौकिक होना उचित सिद्ध नही होता! १ भास्करीयवेदांती।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy