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________________ ११९ -३९] ईश्वरनिरासः कम् अबाधितप्रतिषेधप्रत्ययत्वात् निर्विषाणं खरमस्तकमिति प्रत्ययवत्! इत्यसत्ख्यातिसमथेनेन शुक्ती रजतज्ञानस्य निरालम्बनत्वसिद्धिरिति तदप्यसमञ्जसं सिद्धसाध्यत्वेन हेतोरकिंचित्करत्वात् । कुतस्तथाविधासत्ख्यातेरस्माभिरङ्गीकृतत्वात् । एवं चेत् शुक्तिरजतज्ञानस्य निरालम्बनत्वसिद्धिरिति चेन्न । पुरोवर्तिचकचकायमानशुक्लभासुररूपविशिष्टपदार्थस्य तदालम्बनत्वेन प्रतीयमानत्वात् । तथा हि । वीतं ज्ञानं निरालम्बनं न भवति प्रतीयमानविषयत्वात् संप्रतिप्रन्नज्ञानवत् । तथा वीतो विषयः असन् न भवति प्रतिभासमानत्वात् जिघृक्षाविषयत्वात् प्रवृत्तिविषयत्वाच्च व्यतिरेके खपुष्पवदिति शुक्तिरजतादिज्ञानस्यापि सालम्बनत्वसिद्धिः । तस्मात् घटशब्दः तत्स्वाभिधेयवाचकः अखण्डपदत्वात् शानशब्दवदिति पृथिव्यप्तेजोवायुकालाकाशादिबहिःप्रमेयस्य प्रमाणप्रसिद्धत्वात् विश्वतत्त्वप्रकाशायेति नमस्कारश्लोकस्यायं विशेषण सुखेन जाघट्यते । ततश्च 'बहिःप्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते' इति युक्तमेवोक्तमाचार्यवर्येण । उचित नही। ' यह चांदी नहीं है ' यह बाद में उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पहले भी उस विषय के अभाव को सूचित करता है यह कथन तो ठीक है क्यों कि यहां चांदी का अभाव हमें भी मान्य है। किन्तु इस से इस ज्ञान को निराधार नही कहा जा सकता - सामने पडी हुई तेजस्वी चमकीली सफेद चीज (सीप) इस ज्ञान का आधार विद्यमान ही है। इसे उठाने की इच्छा तथा तदनुसार प्रवृत्ति होना इस बात का स्पष्ट गमक है कि यह ज्ञान निराधार नही है तात्पर्य यह है कि घट आदि शब्द अपने अपने अर्थ के वाचक हैं । अतः ज्ञान के समान ही पृथिवी, जल, वायु, तेज, आकाश, काल आदि बाह्य पदार्थ भी प्रमाणसिद्ध हैं। अत एव आचार्य का यह कथन - ‘बाह्य प्रमेय की अपेक्षा प्रमाण तथा प्रमाणाभास दोनों का अस्तित्व मान्य है' तथा मंगलाचरण का 'सब तत्त्वों के प्रकाशक ' यह विशेषण ये दोनों उचित सिद्ध होते हैं। १ असत्त्वावेदकम् । २ न साधु । ३ असत्ख्यातिरङ्गीक्रियते युष्माभिर्जेनेरिति चेत्। ४ शुक्तिलक्षणस्य । ५ रजतज्ञान। ६ यः असन् भवति स प्रतिभासमानो न भवति यथा खपुष्पम् । ७ समन्तभद्रेण ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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