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________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः [२ साध्यते असंभवबाधकप्रमाणत्वात् सुखादिवदिति चेत् न । हेतोराश्रयासिद्धत्वात् । अनेकबाधकप्रमाणसंभवेन असंभवद्वाधकप्रमाणस्य स्वरूपासिद्धत्वाच्च । ननु तनुकरणभुवनादिकं बुद्धिमद्हेतुकं२ कार्यत्वात् पटादिवदित्येतदनुमानं सर्वज्ञावेदकं भविष्यतीति चेन्न । हेतो गासिद्ध. त्वात् । कुत इति चेत् भवदभिमतस्य कार्यत्वस्य पर्वतादिष्वप्रवर्तनात् . तस्मात् सर्वज्ञो नास्ति, अनुपलब्धेः खरविषाणवत् । अथ अत्रेदानीमस्मदादिभिरनुपलम्भेऽपि देशान्तरे कालान्तरे पुरुषान्तरैरुपलभ्यत इति चेन्न । अनुमानविरोधात् । तथा हि । वीतो देशः सर्वशरहितः देशत्वादेतद् देशवत् । वीतः६ कालः सर्वज्ञरहितः कालत्वात् इदानींतनकालवत् । अनुमानके विषय प्रत्यक्षके विषय होते ही हैं ऐसा कोई नियम नही है। अदृष्ट तथा सामान्यतो दृष्ट अनुमानके विषय किसी के प्रत्यक्ष न होनेपर भी उनका अनुमान होता है। दूसरा दोष यह है कि सूक्ष्म इन्यादि सभी पदार्थ अनुमान के विषय हैं यह भी नियम नही है। इसी तरह ये पदार्थ प्रमेय हैं (प्रमाणके विषय हैं ) अतः किसी के प्रत्यक्ष हैं यह अनुमानभी योग्य नही क्यों कि जो प्रमेय हैं वे सब प्रत्यक्ष ही होते हैं ऐसा नियम नही है। सर्वज्ञके विषयमें कोई बाधक प्रमाण नही अतः उसका अस्तित्व सिद्ध है यह कहनाभी ठीक नही क्यों कि ऐसे बाधक प्रमाण अनेक हैं (इन का आगे निर्देश करेंगे)। शरीर, इन्द्रिय, भुवन आदि (जगत) कार्य हैं अतः उस का निर्माता कोई बुद्धिमान (सर्वज्ञ) होना चाहिये यह अनुमानभी योग्य नही क्यों कि जगत में पर्वत इत्यादि भाग कार्य नही है ( अतः उनका निर्माता होना चाहिये यह कल्पना व्यर्थ है)। इस प्रकार किसी प्रमाणसे सर्वज्ञ का ज्ञान नही होता अतः सर्वज्ञका अस्तित्व नही है यही मानना योग्य है। इस समय इस प्रदेशमें इन पुरुषोंको सर्वज्ञका ज्ञान न होता हो किन्तु अन्य समय अन्य प्रदेश में अन्य पुरुषोंको सर्वज्ञका ज्ञान होता है यह कहना भी योग्य नही। इस समय इस प्रदेशमें ये पुरुष हैं उसी प्रकार सब समय सब प्रदेशोंमें सब पुरुष ( अल्पज्ञ ) होते हैं यही अनुमान योग्य है। इस तरह सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध नही होता अतः १ नैयायिकः। २ सर्वज्ञहेतुकम् । ३ पर्वतास्तु सदा वर्तन्ते एव, न कार्यरूपाः, अतः कार्यत्वादयं हेतुः पर्वतेषु न प्रवर्तते। ४ नैयायिकः। ५ विवादापन्नः। ६ वि विशेषम् इतः प्राप्तः वीतः।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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