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________________ . पृष्ठ. २, पं. ६ उपयोगेन्द्रिय-न्यायदर्शन में बुद्धि अर्थात ज्ञान को आत्मा का गुण माना गया है। किंतु वह स्थायी नहीं है। मन का संयोग होने पर उत्पन्न होता है और एक क्षण रहकर अपने आप नष्ट हो जाता है। मुक्त अवस्था में आत्मा के साथ मन का संबंध सदा के लिए टूट जाता है। उस समय ज्ञान नहीं होता। सांख्य और वेदांत आत्मा को चित्स्वरूप मानते हैं। वहाँ भी वह बाह्य वस्तुओं के ज्ञान के लिए प्रकृति या अविद्या पर निर्भर है। इसके विपरीत जैनदर्शन निराकार एवं साकार, बाह्य एवं आभ्यंतर प्रत्येक ज्ञान को आत्मा का गुण मानता है। चेतना उसका स्वरूप है । वही जब निराकार होती है, तो उसे दर्शन कहा जाता है और जब साकार तो ज्ञान । दैनंदिन अनुभूति की व्याख्या के लिए आत्मा के इस गुण को दो अवस्थाओं में विभक्त किया जाता है। प्रथम अवस्था को लब्धि कहा जाता है और द्वितीय को उपयोग । लब्धि का अर्थ है-शक्ति जो समय-समय पर उपयोग अर्थात् ज्ञान के रूप में प्रकट होती है। यशोविजय के मतानुसार उपयोग ही प्रमाण है। तर्कयुग के प्रमाणशब्द की यह आगमिक व्याख्या यशोविजय की मौलिक 'देन है । पृष्ठ ४, पं, १ सांव्यहारिक-और पारमार्थिक प्रत्यक्ष ज्ञान के विभाजन की दृष्टि से जैनपरंपरा तीन युगों में विभक्त है जो क्रमशः बाह्य प्रभाव को प्रकट करते हैं। प्राचीन आगमों में यह विभाजन पांच ज्ञानों के रूप में मिलता है। उनमें से प्रथम दो अर्थात् मति और श्रुत, इंद्रिय अथवा मन के रूप में बाह्य कारणों की अपेक्षा रखते हैं। शेष तीन अर्थात् अवधि, मनःपर्यय और केवल बाह्य कारणों की अपेक्षा नहीं रखते । प्रथम युग में प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में विभाजन नहीं मिलता। द्वितीय युग में प्रथम दो ज्ञानों को बाह्य सापेक्ष होने के कारण परोक्ष मान लिया गया और शेष तीन को प्रत्यक्ष । किंतु वैदिक दर्शन इंद्रियजन्य ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मानते थे। तृतीय युग में उनका समन्वय है और इंद्रिय ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के 'रूप में स्वीकार कर लिया गया। उसकी तुलना में आत्ममात्र की अपेक्षा रखने वाले अंतीम तीन ज्ञानों को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा गया। नंदीसूत्र में तीनों प्रकार का विभाजन मिलता है। प्रथम दो ज्ञानों में श्रुत'ज्ञान परोक्ष के अंतर्गत है, इसे अन्य दर्शनों ने शब्द अथवा आगम प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है। प्रथम मतिज्ञान के दो भेद हो गये । इंद्रियजन्य साक्षात् अनुभूति को प्रत्यक्ष मान लिया गया और अन्य अनुभूतियों को परोक्ष । तर्कयुग में पाँच ज्ञानों के रूप में विभाजन की परंपरा समाप्त हो गई और उसका स्थान प्रत्यक्ष और परोक्ष ने ले लिया था। प्रत्यक्ष के दो भेद कर दिए गए-सांव्यवहारिक और पारमार्थिक । पारमार्थिक के पुनः दो भेद हो गए-अवधि और मनः पर्यय को विकल तथा केवल को सकल प्रत्यक्ष कहा गया। परोक्ष , के पाँच भेद किए गए-१) स्मरण २) प्रत्यभिज्ञान ३) तर्क ४) अनुमान और ५) आगम । इस प्रकार ज्ञानमीमांसा ने प्रमाणमीमांसा का रूप ले लिया और उसमें अन्य दर्शनों द्वारा प्रस्तुत प्रमाणव्यवस्था का -समन्वय कर लिया गया। पृष्ठ ४, पं. २ प्रत्यक्ष-प्रत्यक्षशब्द की व्युत्पत्ति करते हुए यशोविजय ने अक्ष शब्द के दो अर्थ किए हैं-इंद्रियाँ और जीव । और इसी आधार पर सांव्यवहारिक और पारमार्थिक दोनों प्रत्यक्षों को सम्मिलित कर लिया। किंतु यहाँ प्रश्न होता है कि व्युत्पत्ति द्वारा दो अर्थ निकलने पर भी उन्हें लक्षण में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। उसका आधार किसी एक ही बात को रखना होगा । इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर वादिदेवसूरि आदि आचार्यों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष में भेद का मुख्य आधार विशदता को माना। प्रत्यक्ष से होने वाला ज्ञान परोक्ष की तुलना में अधिक विशद होता है । अनुमान से केवल अग्नि के अस्तित्व का भान होता है, किंतु प्रत्यक्ष होने पर रूप, आकार आदि अनेक तथ्य सामने आ जाते हैं । अतः यह मानना होगा कि परोक्ष की तुलना में प्रत्यक्ष अधिक स्पष्ट या विशद होता है। यशोविजय ने भी इस तथ्य का उल्लेख किया है।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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