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________________ ७४ जैन तर्क भाषा ·-- दिद्रव्यमनाकारं भविष्यत्कुण्डलादि- पर्यायलक्षणभावहेतुत्वेनाभ्युपगच्छन् विशिष्टेन्द्राद्यभिलापहेतुभूतां साकारामिन्द्रादिस्थापनां नेच्छेत् ?, न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नामेति । किश्च, इन्द्रादिसञ्ज्ञामात्रं तदर्थरहितमिन्द्रादिशब्दवाच्यं वा नामेच्छन् अयं भावकारणत्वाविशेषात् कुतो नामस्थापने नेच्छेत् ? प्रत्युत सुतरां तदभ्युमगमो न्याय्यः । इन्द्रमूर्तिलक्षणद्रव्य - विशिष्टतदाकाररूपस्थापनयोरिन्द्रपर्यायरूपे भावे तादात्म्यसंबन्धेनावस्थितत्वात्तत्र वाच्यवाचक भावसंबन्धेन संवद्धान्नाम्नोऽपेक्षया सन्निहिततरकारणत्वात् । सङ्ग्रहव्यवहारौ स्थापनावर्जंस्त्रीन्निक्षेपानिच्छत इति केचित्; तन्नानवद्यं यतः संग्रहिकोऽसंग्रहिकोऽर्नापितभेदः परिपूर्णो वा नैगमस्तावत् स्थापनामिच्छतीत्यवश्यमभ्युपेयम्, संग्रहव्यवहारयोरन्यत्र द्रव्यार्थिके स्थापनाभ्युपगमावर्जनात् । तत्राद्यपक्षे संग्रहे स्थापनाभ्युपगमप्रसंगः, संग्रहनयमतस्य संग्रहिकनैगममताविशेषात् । द्वितीये व्यवहारे तदभ्युपगमप्रसंगः, तन्मतस्य व्यवहारमतादविशेषात् । तृतीये च निरपेक्षयोः जब ऋजुसूत्रनय पिंडावस्था में कुंडल आदि आकारसे रहित सुवर्णद्रव्यको, भविष्य में होनेवाले कुंडल आदि पर्याय रूप भावका कारण होनेसे स्वीकार करता है तो जो इन्द्र आदिके अभिलापका कारण है और साकार है-अर्थात् जिसे देखकर 'इन्द्र' ऐसा शब्द प्रयोग होता है और जिसमें इन्द्रका आकार भी विद्यमान है, ऐसी स्थापनाको क्यों स्वीकार नहीं करेगा ? और जब यह नय इन्द्ररूप अर्थसे रहित 'इन्द्र' इस नाम मात्रको इन्द्र पदका वाच्य मानता है तो फिर नाम और स्थापनाको क्यों न मानेगा ? आखिर वे भी तो ( द्रव्यकी भाँति ) "भावके कारण ही हैं । उनको मानना तो न्यायसंगत ही है । इन्द्रमूर्ति रूप द्रव्य और इन्द्रका विशिष्ट आकार रूप स्थापना, यह दोनों इन्द्रपर्याय रूप भाव में तादात्म्य संबंध मे रहते हैं, जब कि नाम सिर्फ वाच्य वाचक संबंधसे ही रहता है । अतएव नामकी अपेक्षा द्रव्य और स्थापना 'भावसे निकटतर हैं । कोई कहते हैं - संग्रह और व्यवहारनय स्थापनाको छेड़ कर तीन निक्षेपोंको स्वीकार करते हैं, किन्तु यह कथन भी निर्दोष नहीं है । यह तो मानना ही पड़ेगा कि संग्रहिक नैगम, असंग्रहिक नैगम या भेदनिरपेक्ष परिपूर्ण नैगमनय स्थापनाको तो स्वीकार करता ही है क्योंकि संग्रह और व्यवहारको छोड़कर अन्यत्र द्रव्यार्थिकमें स्थापनाका स्वीकार निषिद्ध नहीं है । अर्थात् सिर्फ यही कहा गया है कि संग्रह और व्यवहारनय स्थापना निक्षेपको स्वीकार नहीं करते । ऐसी स्थितिमें यदि नैगम नय स्थापना निक्षेपको स्वीकार करता है तो पूर्वोक्त तीन प्रकारके नगमों में से कौन-सा नैगमनय स्वीकार करता है ? यदि संग्रहिक नैगम स्थापनाको स्वीकार करता है यह पक्ष मानना हो तो इस प्रथम पक्ष में, संग्रहनय के मतमें स्थापनाको स्वीकार करनेका प्रसंग आता है, क्योंकि संग्रहनयकी मान्यता संग्रहिकतैगमसे भिन्न नहीं है । यदि दूसरा ( असंग्र हिकने गमनयका) पक्ष स्वीकार किया जाय तो यह मानना होगा कि व्यवहारनय स्थापनाको स्वीकार करता है, क्योंकि असंग्रहिकनयका मत व्यवहारनयसे
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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