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________________ निःक्षेपपरिच्छेदः (२. निःक्षेपाणां नयेषु योजना । ) अथ नामादिनिक्षेपा नयः सह योज्यन्ते । तत्र नामादित्रयं द्रव्यास्तिकनयस्यैवाभिमतम्, पर्यायास्तिकनयस्य च भाव एव। आद्यस्य भेदौ संग्रहग्यवहारी, नंगमस्य यथाक्रमं सामान्यग्राहिणो विशेषग्राहिणश्च अनयोरेवान्तर्भावात् । ऋजुसूत्रावयश्च चत्वारो द्वितीयस्य भेदा इत्याचार्यसिद्धसेनमतानुसारेणाभिहितं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादैः"नामाइतियं दवट्ठियस्य भावो अ पज्जवणयस्स। । मावा अपज्जवणयस्स। संगहववहारा पढमगस्स सेसा उ इयरस्स ॥" इत्यादिना विशेषावश्यके । स्वमते तु नमस्कारनिक्षेपविचारस्थले "भावं चिय सद्दणया सेसा इच्छन्ति सम्वणिक्खेवे" (२८४७) इति वचसा त्रयोऽपि शब्दनयाः शुद्धत्वाद्भावमेवेच्छन्ति ऋजुसूत्रादयस्तु, चत्वारश्चतुरो ऽपि निक्षेपानिच्छन्ति अविशुद्धत्वादित्युक्तम् । ऋजुसूत्रो नामभावनिक्षेपावेवेच्छतीत्यन्ये ; तत्र (तन्न) ; ऋजुसूत्रेण द्रव्याभ्युपगमस्य सूत्राभिहितत्वात्, पृथक्त्वाभ्युपगमस्य परं निषेधात् । तथा च सूत्रम्--"उज्जुसुअस्स एगे अणुवउत्ते आगमओ एगं दव्यावस्सयं, पुहत्तं नेच्छइ ति" (अनुयो० सू० १४) कथं चायं पिण्डावस्थायां सुवर्णा (निक्षेपोंकी नयोंमें योजना) अब नामनिक्षेप आदिकी नयोंमें योजना करते हैं। चार निक्षेपोंमेंसे नाम, स्थापना और द्रव्यनिक्षेपको द्रव्याथिकनय ही स्वीकार करता है। भावनिक्षेपको पर्यायाथिकनय मान्य करता है। द्रव्याथिकनयके दो भेद हैं। संग्रह और व्यवहार, क्योंकि सामान्यग्राही नेगमनयका संग्रहनयमें और विशेषग्राही नैगमनयका व्यवहारनयमें समावेश हो जाता है। ऋजुसूत्र आदि चार भेद पर्यायाथिकनयके हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकरके इस मतके अनुसार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकमें कहा है-नामादि तीन निक्षेप द्रव्याथिकनयको और भावनिक्षेप पर्यायाथिकनयको मान्य है। संग्रह और व्यवहारनय द्रव्याथिकके भेद हैं और ऋजसूत्र आदि शेष नय पर्यायाथिकके भेद हैं। किन्तु जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने निजके मतके अनुसार नमस्कारके निक्षेपोंका विचार करते हुए ऐसा कहा है-शब्दनय अर्थात् शब्द, समभिरूढ और एवंभूतनय भावनिक्षेप को ही स्वीकार करते हैं और शेष नय सभी निक्षेपों को स्वीकार करते हैं। तीनों शुद्धनय शुद्ध होने के कारण भाव को ही मानते हैं किन्तु ऋजुसूत्र आदि चारों निक्षेपोंको स्वीकार करते हैं। किसीका कहना है कि ऋजुसूत्रनय नाम और भाव निक्षेपोंको ही अंगीकार करता है, किन्तु यह कथन ठीक नहीं है। ऋजुसूत्रनयका द्रव्यनिक्षेपको स्वीकार करना सूत्रोक्त है। यह नय केवल पृथक्त्व (अनेकता) का ही निषेध करता है। अनुयोगद्वारसूत्र में कहा है-'उज्जु सुअस्स' इत्यादि, अर्थात्-ऋजुसूत्रनयके अभिप्रायसे एक अनुपयुक्त (उपयोगशून्य) पुरुष आगमसे एक द्रव्यावश्यक है; यह नय पृथक्त्व (अनेकत्व) नहीं मानता।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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