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________________ अतिरिक्त अन्य विषयों पर भी उनकी रचनाएँ मिलती हैं। उनमें कर्म, नवतत्त्व, आचार आदि विषयक ग्रंथ भागमिक साहित्य में गिने जाएंगे और प्रमाण, प्रमेय, नय आदि विषयों पर जो ग्रंथ हैं वे तर्क साहित्य में, मंगल, मुक्ति, आत्मा, योग आदि विषयों पर जो ग्रंथ हैं, उन्हें साधना-साहित्य में गिना जायगा । व्याकरण, काव्य, छंद अलंकार आदि विषयों पर भी उन्होंने लिखा है । शैली की दृष्टि से उनकी रचनाएँ खंडन, मंडन और समन्वय तीनों प्रकार की हैं। उनका खंडन सूक्ष्म एवं वस्तुलक्ष्यी है। साधना-साहित्य में जैन एवं जैनेतर दृष्टियों का समन्वय मिलता है, वहाँ भगवद्गीता एवं पातंजलयोगदर्शन का जैन दृष्टि के साथ पर्यालोचन किया गया है। उन्होंने दिगंबर आचार्य विद्यानंदकृत अष्टसहस्त्री पर भी व्याख्या लिखी है। इससे उनकी उदार दृष्टि का परिचय मिलता है। भारतीय तर्कशास्त्र में दो ग्रंथ युगप्रवर्तक माने जाते हैं। प्रथम श्रीहर्ष का खंडनखंडखाद्य है । इसका संबंध शांकरवेदांत के साथ है। किंतु उसमें खंडन की जो शैली है, वह इस बात को प्रकट करती है कि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो किसी सिद्धांत की स्थापना नहीं हो सकती । इसी ग्रंथ का सहारा लेकर अद्वैत वेदांत भन्य दर्शनों पर हावी हो गया। वास्तव में देखाजाय तो खंडनखंडखाद्य में जो शैली अपनाई गई है, उसका प्रथम आविष्कार प्रसिद्ध बौद्धाचार्य नागार्जुन ने किया था-जो शून्यवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने इस बात की स्थापना की-'विश्व के संबंध में बाह्य तथा आभ्यंतर,जड तथा चेतन, नित्य तथा अनित्य, सत्य तथा असत्य समस्त बातें कल्पना मात्र हैं।' इसी तथ्य का उन्होंने 'शून्य-शब्द' द्वारा प्रतिपादन किया। खंडनखंडखाद्य ने भी उन्हीं यक्तियों का आश्रय लिया । उसका प्रभाव सभी दर्शनोंपर पड़ा और उस ने -यथार्थवादी परंपराओं को दबादिया । यशोविजय ने जैन दृष्टि से खंडनखंडखाद्य की अलोचना की है । १४ वीं शताब्दि में गंगेश नामक मैथिलविद्वान् ने तत्त्वचितामणिनामक ग्रंथ रचा । इसके साथ दार्शनिक जगत् में नव्य-न्याय का प्रवेश हुआ। इसने दार्शनिक प्रतिपादन शैली को सर्वथा बदल दिया। उत्तरवर्ता समस्त दार्शनिक साहित्य पर इसकी छाप है। यशोविजय ने जैन दर्शन का प्रतिपादन भी नव्य-न्याय शैली पर किया। इस प्रकार दार्शनिक जगत को दोनों नवीन धाराओं को जैन-माहित्य में प्रचलित किया। जो उनकी अनुपम देन है। यशोविजयविरचित ग्रंथों की सूची । लभ्यग्रंथ-१) अध्यात्ममतपरीक्षा (स्वोपज्ञटीका) २) अध्यात्मसारः ३) अध्यात्मोपनिषद् ४) अनेकांतव्यवस्था ५) आध्यात्मिकमतदलनम् (स्वोपज्ञटीका) ६) आराधकविराधकचतुर्भगी (स्वोपज्ञटीका) ७) अष्टसहस्त्रीविवरणम् ८) उपदेशरहस्यम् (सोपज्ञटीका) ९) ऐंद्रस्तुतिचतुर्विंशतिका (स्वोपज्ञटीका) १०) कर्मप्रकृतिटीका ११) गुरुतत्त्वविनिश्चयः १२) ज्ञानबिंदु १३)ज्ञानसार: १४ जैनतर्कभाषा १५) देवधर्म-परीक्षा १६) द्वात्रिंशद्वात्रिशिका (स्वोपज्ञटीका) १७) धर्मपरीक्षा (स्वोपज्ञटोका) १८) धर्मसंग्रहटिप्पणम् १९) नयप्रदीपः (स्वोपज्ञटीका) २०) नयोपदेशः (स्वोपज्ञनयामृततरंगिणी टीका) २१) नयरहस्यम् २२) निशाभक्तप्रकरणम् २३) न्यायखंडखाद्यम्-वीरस्तवः स्वोरज्ञटीका २४) न्यायालोकः २५) परमात्मांचविंशतिका २६) परमज्योतिपंचविंशतिका २७) पातंजलयोगदर्शनविवरणम् २८) प्रतिमाशतकम् (स्वोपज्ञटीका) २९) भाषारहस्यम् (स्वोपज्ञटीका) ३०) मार्गपरिशुद्धिः ३१) यतिलक्षणसमुच्चयः ३२) योगविशिकाटीका ३३) -वैराग्यकल्पलता ३४) योगदीपिका (षोडशकवृत्तिः ) ३५) सामाचारीप्रकरणम् (स्वोपज्ञटीका) ३६) स्यादवादकल्पळता (शास्त्रावार्तासमुच्चयटीका) ३७) स्तोत्रावलिः ३८) संखेश्वरपार्श्वनाथस्तोत्रम् ३९) समीकापाश्वनाथस्तोत्रम् ४०) आदिजिनस्तवनम्, विजयप्रभसूरिस्वाध्यायः गोहीपार्श्वनाथस्तोत्रादिः, द्रव्याययक्तिः इत्यादि
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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