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________________ काशी के पश्चात् उन्होंने ४ वर्ष तक आगरा में अध्ययन किया। इसके पश्चात् अहमदाबाद पहुंचे और वहाँ औरंगजेब के सूबेदार महोबतखाँ के समक्ष १८ अवधान किए। विजयदेवसूरिके शिष्य विजयप्रभसरिने सं. १७१८ में उन्हें 'वाचक-उपाध्याय' पदवी प्रदान की। सं. १७४३ में बडौदा के निकट 'डमाई' गांव में यशोविजय का स्वर्गवास हुआ, वहाँ उनकी पादुका स्थापित है। " ऊपर बताया जा चुका है कि जैन दार्शनिक साहित्य को उपाध्यायजी की मौलिक एवं अत्यंत महत्त्वपूर्ण देन है । उन्होंने जो योग्यता प्राप्त की वह साधारणतया अन्य जैन आचार्यों में नहीं मिलती। उन्होंने पूर्वपक्ष के रूप में दूसरे दर्शनों को प्रस्तुत करते समय कहीं खींचतान या तोड-मरोड नहीं की। इससे दो बातों का पता चलता है । पहली बात यह है कि उनका अध्ययन व्यापक एवं वस्तुलक्ष्यी था। इधर-उधर से सुनकर अथवा पारंपरिक आधारों पर किसी बात का खंडन या पर्यालोचन नहीं किया । दूसरी बात यह है कि उनकी दृष्टि सभी के प्रति सहानुभूतिपूर्ण एवं समन्वयात्मक थी जो अनेकांत का मूल तत्त्व है। इस उदार दृष्टि का मुख्य कारण था उनका काशी में जाकर अध्ययन करना और जैनेतर विद्वानों के संपर्क में आना । दूसरी बात यह है कि उन्होंने बहतसी दार्शनिक समस्याओं का जो समाधान प्रस्तुत किया है, वह पूर्ववर्ती आचार्यों में नहीं मिलता। उसे पढ़कर ज्ञात होता है कि जैन-दर्शन को समझने के लिए अन्य दर्शनों का मौलिक अध्ययन आवश्यक है। तत्कालीन स्थिति उस समय राजस्थान, गुजरात तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश पर मुसलमानों का आतंक था। तर्क, एवं दर्शनशास्त्र का पर्यालोचन बंगाल, मिथिला एवं काशी में कुछ विद्वानों के घरों तक सीमित था । अन्यत्र एक ओर साधारण जनता में भक्तिवाद का प्रसार हो रहा था, दूसरी ओर राजघरानों में श्रृंगार का । राजस्थान एवं गुजरात के जनसमाज में दो धाराएं थीं। एक ओर मत्तिपूजक समाज मंदिरों के निर्माण और उसके आडम्बरोंमें लगा था। दूसरी ओर स्थानकवासी समाज निवृत्ति एवं त्याग को अत्यधिक महत्त्व दे रहा था। ज्ञान-साधना की ओर दोनों की उपेक्षा थी। ऐसे युग में यशोविजय का आविर्भाव मरुस्थली में सरोवर के समान सिद्ध हुआ। उन्होंने सभीका ध्यान सांप्रदायिक मतभेद से ऊपर उठाकर ज्ञानसाधना की ओर आकृष्ट किया। तत्त्वजिज्ञासु की सूक्ष्म एवं निष्पक्ष द्दष्टि लेकर इस ओर प्रवृत्त हुए और अनेकांत का सच्चा प्रतिनिधित्व किया । आवरण आते ही प्रकाश अंधकार में परिणत हो जाता है । इसी प्रकार सत्य सीमाविशेष में आबद्ध होते ही असत्य बन जाता है । धारणाविशेष को असत्य तभी कहा जाता है जब वह विरोधी दृष्टि का अपलाप करती है। विरोधी का स्वागत करने पर वही सत्य का रूप ले लेती है जैन परिभाषा में विरोधी के अपलाप को 'एकांत' कहते हैं और स्वागतको 'अनेकांत'। यशोविजय ने इस दृष्टि को हृदय और बुद्धि दोनों भूमिकाओं पर उपस्थित किया है। रचनाएं यशोविजय ने विशाल संख्यक ग्रंथों की रचना की जो एक ओर उनके प्रखर पांडित्य और दूसरी ओर भावुक हृदय को प्रकट करते हैं । उनकी कृतियाँ चार भाषाओं में हैं-संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिंदी। वे तार्किक थे और कवि भी। उनकी प्रतिभा गद्य और पद्य में समान रूप से प्रकट हुई है। विषय दृष्टि से उनकी रचनाएँ व्यापक एवं सूक्ष्म अध्ययन को प्रगट करती हैं। आगम और तर्क के
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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