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________________ ४४ जैन तर्क भाषा आगमात्परेणैव ज्ञातस्य वचनं परार्थानुमानम्, यथा बुद्धिरचेतना उत्पत्तिमत्त्वात् घटवदिति सांख्यानुमानम् । अत्र हि बुद्धावुत्पत्तिमत्त्वं सांख्याने (ख्येन) नैवाभ्युपगम्यते इति; तदेतदपेशलम् ; वादिप्रतिवादिनोरागमप्रामाण्यविप्रतिपत्तः, अन्यथा तत एव साध्यसिद्धिप्रसंगात् । परीक्षापूर्वमागमाभ्युपगमेऽपि परीक्षाकाले तद्वाधात् । नन्वेवं भवद्भिरपि कथमापाद्यते परं प्रति यत् सर्वथकं तत् नानेकत्र सम्बध्यते, तथा च सामान्यम्' इति ? सत्यम्; एकधर्मोपगते (मे) धर्मान्तरसन्दर्शनमात्रं ___इसके अतिरिक्त, यदि प्रतिज्ञा (पक्ष) प्रयोगके योग्य नहीं है तो शास्त्रादिमें भी उसका प्रयोग नहीं करना चाहिए था, मगर बौद्ध-शास्त्रमें भी उसका प्रयोग देखा जाता है। यदि कहा जाय कि परानुग्रह के लिए शास्त्रमें प्रतिज्ञाका प्रयोग किया जाता है तो यह बात तो वादमें भी समान है । मन्दमति विजिगीषु जनोंको पक्षप्रयोगसे ही अर्थका बोध हो सकता है। हेतु वादी और प्रतिवादी- उभयको सिद्ध होना चाहिए, इस सर्वसम्मत सिद्धान्तके विरुद्ध कोई (सांख्य) कहता है-केवल प्रतिवादीको ही, उसके आगमके अनुसार जो सिद्ध है उस हेतुका प्रयोग करना परार्थानुमान कहलाता है। जैसे- बुद्धि अचेतन है, क्योंकि वह उत्पत्तिमान् है, जो उत्पत्तिमान् होता है, वह अचेतन होता है, जैसे घट । सांख्यका यह अनुमान परार्थानुमान है । यहाँ 'उत्पत्तिमत्त्व' हेतु स्वयं सांख्यको मान्य नहीं है (क्योंकि वह किसी पदार्थका उत्पाद अथवा विनाश स्वीकार नहीं करता, सिर्फ आविर्भाव और तिरोभाव मानता है) तथापि प्रतिवादीको सिद्ध है अतः यह परार्थानुमान है । उनका यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि आगमकी प्रमाणताके विषयमें वादी और प्रतिवादीका मतभेद होता है। मतभेद न हो तो आगमसे ही साध्यकी सिद्धि हो जाय- अनुमानकी आवश्यकता ही न रहे। कदाचित् कहा जाय कि प्रतिवादी अनुमान करनेके बाद परीक्षा करके आगमको स्वीकार करेगा; अनुमान करते समय तो वह यों ही स्वीकार कर लेता है और उसीके आधारसे हेतुका प्रयोग करता है, तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि परीक्षाके समय तो उसमें बाधा है (जिसकी प्रमाणता निश्चित नहीं है ऐसे आगमके आधारपर हेतुका प्रयोग. करना समीचीन नहीं है । ) शङ्का- यदि परकीय आगमसे सिद्ध हेतुका प्रयोग करना उचित नहीं है तो आप सामान्यके एकान्त एकत्वका निषेध करनेके लिए क्यों नैयायिकके प्रति यह दोषापादन करते हैं कि- 'जो सर्वथा एक होता है, वह अनेकोंमें सम्बद्ध नहीं हो सकता; सामान्य सर्वथा एक है तो वह अनेकोंमें सम्बद्ध नहीं होना चाहिए ? अर्थात् यहाँ जनोंने नैयायिक द्वारा ही स्वीकृत सामान्यकी एकताको हेतु बनाकर उसके अनेकत्र संबंधका निषेध किया है। यह किस प्रकार संगत हो सकता है ?
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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