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________________ प्रमाणपरिच्छेदः ( परार्थानुमानस्य प्रतिपादनम् ) पराथं पक्षहेतुवचनात्मकमनुमानमुपचारात्, तेन श्रोतुरनुमानेनार्थबोधनात् । पक्षस्य विवादादेव गम्यमानत्वादप्रयोग इति सौगतः; तन्न; यत्किञ्चिद्वचनव्यवहितात् ततो व्युत्पन्नमतेः पक्षप्रतीतावप्यन्यान् प्रत्यवश्यनिर्देश्यत्वात् प्रकृतानुमानवाक्यावयवान्तरैकवाक्यतापन्नात्तोऽवगम्यमानस्य पक्षस्याप्रयोगस्य चेष्टवात् । अवश्यं चाभ्युपगन्तव्यं हेतोः प्रतिनियतमिधर्मताप्रतिपत्त्यर्थमुपसंहारवचनवत् साध्यस्यापि तदर्थ पक्षवचनं ताथागतेनापि, अन्यथा समर्थनोपन्यासादेव गम्यमानस्य हेतोरप्यनुपन्यासप्रसंगात्, मन्दमतिप्रतिपत्त्यर्थस्य चोभयत्राविशेषादिति । किञ्च, प्रतिज्ञायाः प्रयोगानहत्वे शास्त्रादावप्यसौ न प्रयुज्यत, दृश्यते च प्रयुज्यमानेयं शाक्यशास्त्रेऽपि । परानुग्रहार्थं शास्त्रे तत्प्रयोगश्च वादेऽपि तुल्यः, विजिगीषूणामपि मन्दमतीनामर्थप्रतिपत्तेस्तत एवोपपत्तेरिति । [परार्थानुमान] साधनसे साध्यका ज्ञान होना अनुमान है, यह पहले बतलाया जा चुका है। यहाँ पराऑनुमानका निरूपण किया जा रहा है । पक्ष और हेतुका प्रयोग करना परार्थानुमान है। परार्थानुमान ज्ञानात्मक न होकर वचनात्मक होनेसे उपचारसे प्रमाण माना गया है । उपचार का कारण यह है कि वचनसे श्रोताको अनुमानज्ञान होकर अर्थका बोध उत्पन्न होता है । बौद्धोंकी मान्यता है कि पक्ष का ज्ञान विवादसे ही अर्थात् जिस विषयमें विवाद खड़ा हुआ हो उमसे हो जाता है, अतएव उसके प्रयोगकी आवश्यकता नहीं है । यह मान्यता समीचीन नहीं है । व्युत्पन्नमतिवालेको किसी भी प्रासंगिक अन्य वचनोंसे व्यवहित होनेपर भी विवादसे पक्ष की प्रतीति हो भी जाय तो भी दूसरोंके प्रति, जिन्हें उसकी प्रतीति नहीं हुई है, पक्षका प्रयोग अवश्य करना चाहिए । प्रकृत अनुमान वाक्यके अन्य अवयवोंसे एक वाक्यताको प्राप्त विवादसे अगर पक्षकी प्रतीति हो जाय तो पक्षका प्रयोग न करना भी अभीष्ट है। जैसे प्रतिनियत धर्मीका धर्म प्रकट करने के लिए बौद्ध हेतुका उपसंहार (उपनय) करते हैं, उसी प्रकार साध्यको प्रतिनियत धर्मीका धर्म सिद्ध करनेके लिए पक्षका प्रयोग भी अवश्य करना चाहिए । अर्थात् जैसे उपनयका प्रयोग करनेसे यह प्रतीत हो जाता है कि हेतु अमुक धर्मीका धर्म है, उसी प्रकार पक्षका प्रयोग करनेसे यह प्रतीत हो जाता है कि यह साध्य अमुक धर्मीका धर्म है । यदि पक्षके प्रयोगको अनावश्यक कहा जाय तो हेतुका प्रयोग भी अनावश्यक हो जायगा, क्योंकि समर्थन करनेसे ही हेतुकी प्रतीति हो सकती है। यदि कहा जाय कि मंदबुद्धियोंको समझाने के लिए हेतुका प्रयोग करना आवश्यक है तो पक्षके विषयमें भी यही बात समझ लेना चाहिए।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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