SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चैन तर्क भाषा नवत्, यथा प्रश्नादेशः क्वचिदेव स्थाने संवादयितुं शक्नोति पृच्छयमानमर्थम्, तथेदमपि अधिकृत एव स्थाने विषयमुद्योतयितुमलमिति । उत्पत्तिक्षेत्रात्क्रमेण विषयव्याप्तिमवगाहमानं वर्धमानम्, अधरोत्तरारणिनिर्मथनोत्पन्नोपात्तशुष्कोपचीयमानाधीयमानेन्धनराश्यग्निवत्, यथा अग्निः प्रयत्नादुपजातः सन् पुनरिन्धनलाभाद्विवद्धिमुपागच्छति एवं परमशुभाध्यवसायलाभादिदमपि पूर्वोत्पन्नं वर्धत इति । उत्पत्तिक्षेत्रापेक्षया क्रमेणाल्पीभवद्विषयं हीयमानम्, परिच्छिन्नेन्धनोपादानसन्तत्यनिशिखावत्, यथा अपनीतेन्धनाग्निज्वाला परिहीयते तथा इदमपीति । उत्पत्त्यनन्तरं निर्मूलनश्वरं प्रतिपाति, जलतरंगवत्, यथा जलतरंग उत्पन्नमात्र एव निर्मूलं विलीयते तथा इदमपि। आ-केवलप्राप्तेः आ-मरणाद्वा अवतिष्ठमानम् अप्रतिपाति, वेदवत्, यथा पुरुषवेदादिरापुरुषादिपर्यायं तिष्ठति तथा इदमपीति । (२-मनःपर्यवज्ञानस्य निरूपणम् । ) मनोमात्रसाक्षात्कारि मनःपर्यवज्ञानम् । मनःपर्यायानिदं साक्षात्परिच्छेत्तुमलम्, गामिक कहलाता है, जैसे प्रश्नादेश पुरुषका ज्ञान । जैसे प्रश्नादेश पुरुष किसी खास स्थानपर ही पूछे हुए प्रश्नका सही उत्तर देने में समर्थ होता है, दूसरे स्थानपर सही उत्तर नहीं दे सकता, उसी प्रकार जो अवधिज्ञान, ज्ञानोत्पत्तिके स्थानपर ही रहे हुए पुरुषको विषयका ज्ञान कराता है अन्यत्र चले जानेपर नहीं, वह अनानुगामिक कहलाता है। (३) जो ज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्रसे, क्रमशः पदार्थों को जानता हुआ बढ़ता चला जाता है, वह वर्धमान अवधिज्ञान है । जैसे ऊपर-नीचे रखे हुए अरणिनामक दो काष्ठोंको रगड़नेसे उत्पन्न हुई अग्नि, सूखा ईंधन मिल जाने पर बढ़ती ही चली जाती है। तात्पर्य यह है कि जैसे प्रयत्नसे उत्पन्न हुई थोडी-सी अग्नि ईंधनका संयोग मिलनेसे बढ़ती जाती, उसी प्रकार जो अवधिज्ञान परम शुभ अध्यवसायका निमित्त पाकर, जितनी मात्रामें उत्पन्न हुआ था उससे अधिक वढ़ता जाता है, वह वर्धमान अवधिज्ञान कहलाता है । (४) जलती हुई अग्नि में से ईंधन निकाल लिया जाय तो वह होन-कम-होती जाती है, उसी प्रकार जो अवधिज्ञान उत्पत्तिके समयमें जितने क्षेत्र (क्षेत्रस्थ पदार्थों) को प्रकाशित कर रहा था, बादमें क्रमसे उसका क्षेत्र कम होता चला जाय, वह हीयमान कहलाता है । (५) जैसे जल में उत्पन्न हुई तरंग बादमें समूल विलीन हो जाती है, उसी प्रकार जो अवधिज्ञान उत्पनिके पश्चात् समूल नष्ट हो जाय, वह प्रतिपाति कहलाता है। (६) जैसे पुरुषवेद (पुरुषका चिहृन) जब तक पुरुषपर्याय रहती है, तब तक बना रहता है, उसी प्रकारसे अवधिज्ञान केवल ज्ञानकी प्राप्ति तक या मृत्युपर्यन्त बना रहता है, वह अप्रतिपाती कहलाता है। २.-सिर्फ मनका साक्षात्कार करनेवाला ज्ञान मनःपर्यय या मनःपर्यव कहलाता है।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy