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________________ प्रमाणपरिच्छेदः सामान्यतः क्षयोपशममिति। एवं सपर्यवसितापर्यवसितभेदावपि भाव्यौ। गमिकं सदृशपाठं प्रायो दृष्टिवादगतम् । अगमिकमसदृशपाठं प्रायः कालिकश्रुतगतम् । अंगप्रविष्टं गणधरकृतम् । अनंगप्रविष्टं तु स्थविरकृतमिति । तदेवं सप्रभेदं सांव्यवहारिक मतिश्रुतलक्षणं प्रत्यक्षं निरूपितम् ।। ( पारमाथिकं प्रत्यक्षं त्रिधा विभज्य प्रथममवर्धनिरूपणम् । ) स्वोत्पत्तावात्मव्यापारमात्रापेक्षं पारमाथिकम् । तत् त्रिविधम्-अवधिमनःपर्यय-केवलभेदात् । सकलरूपिद्रव्यविषयकजातीयम् आत्ममात्रापेक्षं ज्ञानमवधिज्ञानम् । तच्च षोढा-अनुगामिवर्धमानप्रतिपातीतरभेदात् । तत्रोत्पत्तिक्षेत्रादन्यत्राप्यनुवर्तमानमानुगामिकम्, भास्करप्रकाशवत्, यथा भास्करप्रकाशः प्राच्यामाविर्भूतः प्रतीचीमनुसरत्यपि तत्रावकाशमुद्योतयति, तथैतदप्येकत्रोत्पन्नमन्यत्र गच्छतोऽपि पुंसो विषयमवभासयतीति । उत्पत्तिक्षेत्र एव विषयावभासकमनानुगामिकम्. प्रश्नादेशपुरुषज्ञा (९-१०) जिस द्रव्य क्षेत्र काल भाव-संबंधी अपेक्षासे श्रुत सादि है उसी अपेक्षासे सपर्यवसित और जिस अपेक्षासे अनादि है, उसी अपेक्षासे अपर्यवसित समझना चाहिए । (११) जिसमें एक सरीखे पाठ हों वह गमिकश्रुत कहलाता है । एक-से पाठ प्रायः दृष्टिवादमें हैं। (१२) जिसमें समान पाठ न हों, वह अगमिकश्रुत है जैसे कालिकश्रुतके पाठ । (१३) गणधरों द्वारा रचित श्रुत अंगप्रविष्ट कहलाता है । (१४) स्थविरों द्वारा कृत श्रुत अनंगप्रविष्ट है। इस प्रकार मतिज्ञान और श्रुतज्ञान रूप सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका भेद-प्रभेदों-सहित निरूपण किया जा चुका। (पारमार्थिक प्रत्यक्ष) जो ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें सिर्फ आत्माके ही व्यापारकी अपेक्षा रखता है, मन और इन्द्रियोंकी सहायता जिसमें अपेक्षित नहीं है, वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष है। पारमार्थिक प्रत्यक्ष तीन तरह का है- (१) अवधिज्ञान (२) मनःपर्ययज्ञान और (३) केवलज्ञान । १.-सकल रूपी द्रव्योंको जाननेवाला और सिर्फ आत्मासे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है । वह छह प्रकारका है:- (१) अनुगामी (२) अननुगामी (३) वर्द्धमान (४) हीयमान (५) प्रतिपाति (६) अप्रतिपाति । (१) सूर्य के प्रकाशके समान अपनी उत्पत्तिके क्षेत्रसे दूसरी जगह भी साथ-साथ जानेवाला अवधिज्ञान आनुगामिक कहलाता है; जैसे सूर्यका प्रकाश पूर्व दिशामें प्रकट होता है, फिर भी पश्चिम दिशामें आ जाता है और वहाँके क्षेत्रको प्रकाशित करता है; उसी प्रकार आनुगामिक अवधिज्ञान जिस जगहपर रहे पुरुषको उत्पन्न होता है, वह पुरुष उससे भिन्न दूसरे स्थानपर चला जाय तो भी विषयका बोध कराता है । (२) अपने उत्पतिस्थान पर ही विषयका बोध करानेवाला ज्ञान अनानु
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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