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________________ प्रमाणपरिच्छेदः ११ यदि च 'शब्दोऽयम्' इत्यध्यवसायोऽवग्रहे भवेत् तदा शब्दोल्लेखस्यान्तर्मुहर्तिकत्वादावग्रहस्यैकसामा (म) यिकत्वं भज्येत । स्यान्मतम्-'शब्दोऽयम्' इति सामान्यविशेषग्रहणमप्यर्थावग्रह इष्यताम्, तदुत्तरम्-'प्रायो माधुर्यादयः शङ्खशब्दधर्मा इह, न तु शाजधर्माः खरकर्कशत्वादयः' इतीहोत्पत्तेः-इति; मैवम् ; अशब्दव्यावृत्त्या विशेषप्रतिभासेनास्याऽपायत्वात् स्तोकग्रहणस्योत्तरोत्तरभेदापेक्षयाऽव्यवस्थितत्वात् । किश्श, 'शब्दोऽयम्' इति ज्ञान (नं) शब्दगतान्वयधर्मेषु रूपादिव्यावृत्तिपर्यालोचनरूपामीहां विनाऽनुपपन्नम्, सा च नागृहीतेऽर्थे सम्भवतीति तद्ग्रहणं अस्मदभ्युपगतार्थावग्रहकालात् प्राक् प्रतिपत्तव्यम्, स च व्यञ्जनावग्रहकालोऽर्थपरिशून्य इति यत्किश्चिदेतत्। नन्वनन्तरम्-'क एष शब्दः' इति शब्दत्वावान्तरधर्मविषयकेहानिर्देशात् 'शब्दोऽयम्' इत्याकार एवावग्रहोऽभ्युपेय इति चेत् ; न; 'शब्दः शब्दः' इति भाषकेणव भणनात् रस आदिसे व्यावृत्ति न होने के कारण शब्दरूपसे अनिश्चित शब्द वस्तुको ग्रहण करता. है। अर्थात् शब्दको ग्रहण करनेपर भी ग्रहण करनेवाला यह नहीं जानता कि मैं शब्दको ग्रहण कर रहा हूँ। इस कारण सूत्र में उक्त कथन किया गया है। अगर 'यह शब्द है' ऐसा अध्यवसाय अवग्रहमें मान लिया जाय तो शब्दके उल्लेखमें अन्तर्मुहूर्त लगता है, अतः अर्थावग्रह का काल भी अन्तर्मुहूर्त होगा। ऐसी स्थितिमें वह एकसामयिक नहीं रहेगा। शङ्का--'यह शब्द है' इस प्रकार के सामान्य-विशेष (अपर सामान्य) के ग्रहण को भी अर्थावग्रह मान लीजिए। उसके बाद इसमें शंख-शब्दके धर्म मधुरता आदि मालूम होते हैं, शृंगशब्दके धर्म खरता, कर्कशता, आदि नहीं' इस प्रकारसे ईहाकी उत्पत्ति होती हैं ।, समाधान-ऐसा नहीं । ' यह शब्द है' ऐसा ज्ञान अशब्द (रूप रस आदि) की व्यावृत्ति होनेपर उत्पन्न होता है, अतएव विशेष का ज्ञान होनेसे वह अपाय है। रह गई यह बात कि इसमें स्तोक (थोडे) विशेष मालूम होते हैं, अत: यह अपाय नहीं है, सो आगे-आगेके ज्ञानों की अपेक्षा पहले-पहले के सभी ज्ञान थोडे विशेषों को जानते हैं। अतः स्तोकग्रहण अव्यवस्थित-अनियत है। इसके अतिरिक्त शब्दगत अन्वय धर्मोमें, रूप रस आदिकी व्यावृत्तिकी पर्यालोचनारूप ईहाके बिना यह शब्द है' इस प्रकार का ज्ञान नहीं हो सकता। ईहा, अनवगहीत पदार्थमें हो नहीं सकती, अतएव सामान्यका ग्रहण हमारे माने हए अर्थावग्रहके कालसे पहले ही मानना चाहिए । मगर अर्थावग्रहसे पहलेका काल व्यंजनावग्रहका ही काल है और वह अर्थ-प्रतीतिसे शून्य होता है । शङ्का-नन्दीसूत्रमें, अर्थावग्रहके बाद 'यह कौन-सा शब्द है' इस प्रकारके शब्दत्वसामान्यके अवान्तर ( विशेष ) धर्मसंबंधी ईहाका निर्देश किया गया है, अतएव इस ईहासे पहले 'यह शब्द है' इसी प्रकारका शब्दत्वसामान्यका ग्राही अवग्रह मानना चाहिए। .
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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