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________________ जैन तर्क भाषा sपि मनोव्यापारस्य व्यञ्जनावग्रहोत्तरमेवाभ्युपगमात्, 'मनुतेऽर्थान् मन्यन्तेऽर्थाः अनेनेति वा मनः' इति मनःशब्दस्यान्वर्थत्वात्, अर्थभाषणं विना भाषाया इव अर्थमननं विना मनसोऽप्रवृत्तेः । तदेवं नयनमनसोर्न व्यञ्जनावग्रह इति स्थितम् । ( अर्थावग्रहस्य निरूपणम् । ) १ स्वरूपनामजातिक्रियागुणद्रव्यकल्पनारहितं सामान्यग्रहणम् अर्थावग्रहः । कथं तर्हि 'तेन शब्द इत्यवगृहीतः' इति सूत्रार्थः, तत्र शब्दाद्युल्लेखराहित्याभावादिति चेत्; न; 'शब्द' इति वक्त्रैव भणनात्, रूपरसादिविशेषव्यावृत्त्यनवधारणपरत्वाद्वा । १० अर्थ की उपलब्धि करने में समर्थ हो जाता है; इस कारण मनसे व्यंजनावग्रह न होकर सीधा अर्थावग्रह ही होता है । केवल मानसिक अवग्रह के लिए यह बात नहीं है, किन्तु श्रोत्रादि इन्द्रियों के व्यापारके समय भी मनका व्यापार होता है, किन्तु श्रोत्रादिजनित व्यंजनावग्रहके पश्चात् ( अर्थावग्रहके समय में ही ) मनका व्यापार माना गया है । जो पदार्थों का मनन करता है या जिसके द्वारा पदार्थोंका मनन किया जाता है, वह मन कहलाता है । इस प्रकार मन शब्द सार्थक होता है । अर्थात् व्यंजनावग्रहके समय पदार्थकी उपलब्धि न होनेपर भी मनका व्यापार माना जाय तो मन शब्दकी यह सार्थकता नहीं रहेगी । अतएव जैसे अर्थके भाषणके बिना भाषाकी प्रवृत्ति नहीं होती, उसी प्रकार अर्थके मननके विना मनकी प्रवृत्ति नहीं होती । अभिप्राय यह है कि मन प्रवृत्त होते ही अर्थकी उपलब्धि करता है, और अर्थकी उपलब्धि व्यंजनावग्रहमें नहीं, अर्थावग्रहमें प्रारंभ होती है, अतएव मनसे व्यंजनावग्रह मानना योग्य नहीं । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि नयन और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता । अर्थावग्रह १ स्वरूप, नाम, जाति, क्रिया, गुण और द्रव्यकी कल्पना ( शब्दोल्लेख- योग्य प्रतीति ) से रहित सामान्यकी उपलब्धि अर्थावग्रह है । अर्थात् जिस ज्ञानमें सामान्य मात्राकी प्रतीति हो, पर जिसकी प्रतीति हुई है, उसका स्वरूप क्या है, नाम क्या है, जाति क्या है, क्रिया या गुण क्या है, वह क्या द्रव्य है, ये विशेष प्रतीत न हों, वह ज्ञान अर्थावग्रह कहलाता है । शङ्का - अगर अर्थावग्रहमें शब्दोल्लेख योग्य प्रतीति न होकर केवल सामान्य हो की प्रतीति होती है, तो नन्दी सूत्र में अर्थावग्रहकी प्ररूपणा करते हुए जो कहा गया है कि 'उसने 'शब्द' ऐसा ग्रहण किया ( सूत्रपाठ - से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सद्दं सुणेज्जा, 'तेणं सद्देत्ति उग्गहिए' न उण जाणइ के वेस सद्दाइत्ति ।' ) वह कथन कैसे संगत होगा ? क्योंकि यह प्रतीति शब्दोल्लेखसे रहित नहीं है । समाधान—'उसने शब्द ग्रहण किया' यहाँ शब्दकी जो बात कही गई है सो वक्ता (प्ररूपक) ने अपनी ओर से कही है, जाननेवाला नहीं जानता कि यह 'शब्द' है । अथवा रूप
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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