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________________ उदाहरण के रूप में जब हम कहते हैं-'स्वरविषाणं नास्ति' तो इसका अर्थ है-'खरे विषाणं नास्ति' । यहाँ खर धमी है और उसमें विषाणरूप,धर्म का निषेध किया गया है। भाष्यकार का कथन है कि असत् का निषेध नहीं होता। पष्ठ ४७, पं. ७ कश्चित् कारणरूप...... - कार्य से कारण और व्याप्य से व्यापक का अनुमान सभी दर्शनों ने माना है । जैनदर्शन का कथन है कि कारण से भी कार्य का अनुमान हो सकता है। जैसे विशेषप्रकार के बादलों को देखकर यह अनुमान किया जा सकता है कि वृष्टि होगी। न्यायदर्शन अग्नि से धूम के अनुमान को सोपाधिक कहता है और उसे हेत्वाभास मानता है। उसका कथन है कि अग्नि से धुंआँ तभी उत्पन्न होता है, इंधन जब आर्द्र हो। यही उपाधि है। जैनदर्शन का कथन है कि जहाँ कारण का पूरी तरह पर्यालोचन हो सकता हो, वहाँ उससे कार्य का अनुमान किया जा सकता है । इसके लिए दो बातें उपस्थित की जाती हैं-कारण साकल्य और सामर्थ्य का प्रतिबंध । अतः कारण को हेत्वाभास नहीं मानना चाहिए । इसी प्रकार पूर्वचर, उत्तरचर आदि हेतु भी हो सकते हैं। सांख्य-कारिका में कारण से कार्य के अनुमान को पूर्ववत कहा गया है। इसका अर्थ हैपूर्वावस्था से उत्तर-अवस्था का अनुमान । इसके विपरीत कार्य से कारण के अनुमान को शेषवत् कहा है और व्याप्य से व्यापक के अनुमान को सामान्यतोदष्ट । पृष्ठ ५६, पं. ९ के पुनः कालादयः ? .. अनेकांत जैनदर्शन का सर्वस्व है। उसका कथन है कि एक ही वस्तु का भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से अनेक रूपों में प्रतिपादन किया जा सकता है । एक ही व्यक्ति किसी की अपेक्षा पिता है, किसी की अपेक्षा भाई, किसी की अपेक्षा पुत्र और किसी की अपेक्षा पति । विरोध तभी होता है जब अपेक्षाओं को छोड दिया जाता है । इसी प्रतिपादन शैली को स्याद्वाद कहा जाता । स्याद् का मर्थ है-कथंचित् अर्थात् किसी अपेक्षा से और वाद का अर्थ है- कथन या वक्तव्य । आगम साहित्य में इसके लिए चार अपेक्षाएँ मिलती हैं। द्रव्य, अर्थात् व्यक्ति, क्षेत्र, काल, और भाव अर्थात् अवस्था या पर्याय । यशोविजय ने इनकी संख्या आठ बताई है। इनमें आत्मरूप, गुणिदेश और काल क्रमश: द्रव्य क्षेत्र और काल के समान हैं। भाव को ५ बातों में विभक्त कर दिया गया है-अर्थ, संबंध, उपकार, संसर्ग और शब्द । जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने भी इन अपेक्षाओं का प्रतिपादन किया है । उन्होंने वस्तु का दो भागों में विश्लेषण किया है । प्रथम भाग है, वस्तु का अपना स्वरूप ( Thing in itself ) दूसरा भाग हैं उसकी व्याख्या (Interpretation) व्याख्या करते समय प्रत्येक व्यक्ति अपनी परिस्थिति का ध्यान रखता है। स्थान क्षेत्र, स्वार्थ, वैयक्तिक संबंध आदि तत्त्व इस परिस्थिति के घटक हैं। जैनदर्शन का भी कथन है कि शब्द समग्रवस्तु का प्रतिपादन नहीं कर सकता। प्रत्येक वस्तु अनंत धर्मात्मक है और वक्ता अपनी अपेक्षा के अनुसार किसी धर्म को पकडकर व्यवहार करता है। वेदांत ने मूल द्रव्य को सत्य कहा और इन अपेक्षाओं या गुणों को मिथ्या। दूसरी ओर बौद्ध दर्शन का कथन है कि केवल गुण ही सत्य हैं । द्रव्य की सत्ता कोरी कल्पना है । जैनदर्शन दोनों का समन्वय करता है। उसका कथन है कि दोनों सत्य हैं । सामान्य और विशेष दोनों वास्तविक हैं । घडे को घडा भी कहा जा सकता है और एक सत्ता भी। यह वक्ता की अपनो दृष्टि है कि वह सामान्य का प्रतिपादन करता है और कहीं विशेष का। पृष्ठ ५९, पं. २ अथ नया-नय शब्द की व्युत्पत्ति है-'नीयते अनेनेति नयः' अर्थात् वह प्रतीति जिसके द्वारा व्यक्ति किसी एक दिशा की ओर चल पडता है । प्रमाण सर्वग्राही होता है। उसका लक्ष्य होता है, वस्तु को पूर्ण रूप से जानना। इसके विपरीत नय का झुकाव वस्तु के किसी एक अंश की ओर होता है। वह दूसरे अंश का अपलाप नहीं करता। किंतु तात्कालिक स्वार्थ को लेकर किसी एक का चुनाव करता है। उदाहरण के रूप में एक ही व्यक्ति को भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा प्रकट किया जाता है। जब व्यवसाय की चर्चा होती है तब उसे अध्यापक या व्यापारी कहा जाता हैं । जब जाति की तो ब्राह्मण
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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