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________________ को सिद्ध कर सकता है। न्यायदर्शन हेतु और साध्य में कार्य-कारणभाव अथवा व्याप्य-व्यापकभाष का होना आवश्यक मानता है। धूम और अग्नि में कार्य-कारणभाव है तथा ब्राह्मणत्व और मनुष्यत्व में व्याप्य-व्यापकभाव । हेतु कार्य या व्याप्य होता है और साध्य कारण या व्यापक । जैनदर्शन इन संबंधों की चर्चा में नहीं पडता। उसका कथन है कि हेतु के विषय में इतना पर्याप्त है कि माध्य के बिना उसका न रहना निश्चित हो । इतने मात्र से वह साध्य का प्रत्यायक हो सकता है। उदाहरण के रूप में हम यह अनुमान करते हैं कि कल रविवार होगा, क्योंकि आज शनिवार है। शनि और रवि में कार्यकारण या व्याप्य-व्यापक का संबंध बहीं है। फिर भी अनुमान किया जा सकता है । पके हुए फल के रंग को देखकर हम उसके मीठा होने का अनुमान करते हैं। क्योंकि रूप और रस सहचर हैं। इस प्रकार जैन ताकिकों ने हेतु के पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर बादि अनेक भेद किए हैं। वास्तव में देखा जाय तो यह मतभेद केवल शाब्दिक है। न्यायदर्शन इन्हीं हेतुओं को दूसरे शब्दोग्य उपस्थित करता है। उदाहरण के रूप में वह कहेगा-कल रविवार होगा, क्योंकि वह शनिवार का उत्तरभावी है। रविवारत्व और शनिवार के उत्तरभावित्व का सामानाधिकरण्य है और इसी आधार पर व्याप्ति स्थिर की जाती है। पृष्ठ ३७, पं. १० शंकित .... अप्रतीतमितिविशेषणम्-अप्रतीत का अर्थ है असिद्ध अथवा अज्ञात । जो वस्तु सिद्ध या ज्ञात नहीं है, उसी को साध्य के रूप में उपस्थित किया जाता है, किंतु बहुत बार ऐसा “भी होता है कि पूर्वसिद्ध वस्तु में भी प्रतिवादी अथवा जिज्ञासु के द्वारा शंका उपस्थित होने पर उसे सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। ऐसी स्थिति में वह पुनः साध्य बन जाती है। इसी प्रकार विपरीत धारणा को दूर करने के लिए जमे हुए विश्वास की पुन: परीक्षा की जाती है । अतः यहाँ अप्रतीति शब्द के तीन अर्थ हैं-शंकित, विपरीत और अनध्यवसित । पृष्ठ ३८, पं. १ प्रत्यक्षादिविसदस्य न्यायदर्शन अनुमान को प्रत्यक्ष से प्रबल मानता है। किंतु जैनदर्शन का कथन है कि प्रत्यक्ष अनुमान का उपजीव्य है । अतः प्रत्यक्ष से प्रबल नहीं हो सकता। जो अनुमान प्रत्यक्षबाधित है, उसे सम्यक नहीं कहा जा सकता । पृष्ठ ४०, पं. ५ विकल्प सिद्ध-जिस वस्तु में साध्य की सत्ता सिद्ध की जाती है, उसे पक्ष या धर्मी कहा जाता है। यह कहीं पर प्रमाणसिद्ध होता है, जैसे अग्नि के अनुमान में पर्वत । हम उसे प्रत्यक्ष देखते हैं। किंतु वहुत से अनुमान ऐसे भी होते हैं जहाँ धर्मी की केवल कल्पना की जाती है । सत्यासत्य का निर्णय बाद में होता है। उदाहरण के रूप में मीमांसक मर्वज का अस्तित्व नहीं मानता। उसके सामने सर्वज्ञ की सत्ता का अनुमान प्रस्तुत करते समय कहा जायगा कि-'अस्ति सर्वज्ञः' । यहाँ सर्वज्ञ पक्ष है और उसमें अस्तित्व साध्य है। मीमांसक प्रश्न उठाता है कि पक्ष के बिना आप साध्य को कहाँ सिद्ध कर रहे हैं ? इस विसंगति को दूर करने के लिए जैनदर्शन का कथन है कि यहाँ पक्ष या धर्मी विकल्पसिद्ध है । अर्थात् उसे वास्तविक या अवास्तविक कुछ न कहकर हम अनुमान करते हैं और यदि हेतु साध्य को सिद्ध कर देता है तो पक्ष भी प्रमाणित हो जाता है। न्यायदर्शन ऐसे स्थानों पर अनुमान का रूप बदल देता है । वह व्यक्तिविशेष को लेकर सर्वज्ञत्व की सिद्धि करेगा । अथवा 'अस्ति सर्वज्ञः' न कहकर 'अस्ति कश्चिद् सर्वज्ञः' यों कहेगा । ऐसी स्थिति में 'कश्चित्' पक्ष हो जाता है और सर्वज्ञत्व साध्य । ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करते समय भी 'ईश्वरो अस्ति,नहीं कहता। इसके स्थान पर कहता है-'क्षित्यंकुरादिकं कर्तजन्यं, कार्यत्वात्' यहाँ पक्ष क्षिति, अंकुर आदि हैं और उनमें कर्तजन्यत्व साध्य है। मनुष्य उनका कर्ता नहीं हो सकता, अतः अपने-आप ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। . यशोविषय ने भी विशेषावश्यक-भाष्य का उल्लेख करते हुए इस तथ्य को स्वीकार किया है। उनका -कथन है कि निषेध करते समय समासयुक्त पद को तोड कर एक में दूसरे का अपलाप समझना चाहिए।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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